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Militant killed in encounter in Jammu and Kashmir's Pantha Chowk area Militant killed in encounter in Jammu and Kashmir's Pantha Chowk area Reviewed by Manish Pethev on August 30, 2020 Rating: 5
Congress has suffered miserably whenever Ghulam Nabi Azad has been party in-charge in UP: Ex-UPCC chief Congress has suffered miserably whenever Ghulam Nabi Azad has been party in-charge in UP: Ex-UPCC chief Reviewed by Manish Pethev on August 30, 2020 Rating: 5

देश में शुक्रवार को कोरोना के 3 करोड़ टेस्ट पूरे हुए। पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख संक्रमित मिले थे। दूसरे 1 करोड़ टेस्ट में 14.4 लाख और तीसरे में 1 करोड़ टेस्ट में 8.42 लाख संक्रमित मिले थे। राहत की बात है कि इस बार एक करोड़ लोगों की जांच में संक्रमितों के मिलने का आंकड़ गिरकर 8.13 लाख हो गया। देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं। राहत की बात है कि इनमें 26 लाख 47 हजार से ज्यादा लोग ठीक भी हो चुके हैं। 62 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही देश में अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। इनमें 2,499 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। अमेरिका में इतनी ही आबादी में 2.40 लाख लोगों की जांच हो रही है और इनमें 18,295 लोगों की रिपोर्ट पॉजिटिव आ रही है। ब्राजील में 10 लाख की आबादी पर 66,602 टेस्ट हो रहे और 17,730 संक्रमित मिल रहे। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं। https://ift.tt/32zK11X Dainik Bhaskar पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख मरीज मिले थे, इस बार एक करोड़ में 8.13 लाख संक्रमित मिले; अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही

देश में शुक्रवार को कोरोना के 3 करोड़ टेस्ट पूरे हुए। पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख संक्रमित मिले थे। दूसरे 1 करोड़ टेस्ट में 14.4 लाख और तीस...
- August 29, 2020
देश में शुक्रवार को कोरोना के 3 करोड़ टेस्ट पूरे हुए। पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख संक्रमित मिले थे। दूसरे 1 करोड़ टेस्ट में 14.4 लाख और तीसरे में 1 करोड़ टेस्ट में 8.42 लाख संक्रमित मिले थे। राहत की बात है कि इस बार एक करोड़ लोगों की जांच में संक्रमितों के मिलने का आंकड़ गिरकर 8.13 लाख हो गया। देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं। राहत की बात है कि इनमें 26 लाख 47 हजार से ज्यादा लोग ठीक भी हो चुके हैं। 62 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही देश में अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। इनमें 2,499 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। अमेरिका में इतनी ही आबादी में 2.40 लाख लोगों की जांच हो रही है और इनमें 18,295 लोगों की रिपोर्ट पॉजिटिव आ रही है। ब्राजील में 10 लाख की आबादी पर 66,602 टेस्ट हो रहे और 17,730 संक्रमित मिल रहे। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं। https://ift.tt/32zK11X Dainik Bhaskar पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख मरीज मिले थे, इस बार एक करोड़ में 8.13 लाख संक्रमित मिले; अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही 

देश में शुक्रवार को कोरोना के 3 करोड़ टेस्ट पूरे हुए। पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख संक्रमित मिले थे। दूसरे 1 करोड़ टेस्ट में 14.4 लाख और तीसरे में 1 करोड़ टेस्ट में 8.42 लाख संक्रमित मिले थे। राहत की बात है कि इस बार एक करोड़ लोगों की जांच में संक्रमितों के मिलने का आंकड़ गिरकर 8.13 लाख हो गया।
देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं। राहत की बात है कि इनमें 26 लाख 47 हजार से ज्यादा लोग ठीक भी हो चुके हैं। 62 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं।

10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही
देश में अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। इनमें 2,499 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। अमेरिका में इतनी ही आबादी में 2.40 लाख लोगों की जांच हो रही है और इनमें 18,295 लोगों की रिपोर्ट पॉजिटिव आ रही है। ब्राजील में 10 लाख की आबादी पर 66,602 टेस्ट हो रहे और 17,730 संक्रमित मिल रहे।

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देश में अब तक 34 लाख 61 हजार से ज्यादा लोग संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं।

https://ift.tt/32zK11X Dainik Bhaskar पहले 1 करोड़ टेस्ट में 3.2 लाख मरीज मिले थे, इस बार एक करोड़ में 8.13 लाख संक्रमित मिले; अब हर 10 लाख की आबादी में 29 हजार लोगों की जांच हो रही Reviewed by Manish Pethev on August 29, 2020 Rating: 5

पूर्व सोवियत संघ के दो प्रमुख देशों रूस और बेलारूस में वर्षों से सत्ता में जमे तानाशाहों के खिलाफ असंतोष उबल रहा है। बेलारूस में हजारों लोगों ने सड़कों पर आकर चुनावी धांधली के खिलाफ आवाज उठाई है। बेलारूस की स्थिति ने 1989 की बगावत की याद दिलाई है। रूसी शहर खबरोवस्क में कई सप्ताह से हजारों लोग स्थानीय गर्वनर की गिरफ्तारी और केंद्र सरकार की मनमानी का विरोध कर रहे हैं। राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भयभीत लगते हैं। उनके सबसे लोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी अलेक्सी नावाल्नी बर्लिन, जर्मनी के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। उन्हें जहर दिया गया है। अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं पुतिन और मिंस्क, बेलारूस में एलेक्जेंडर लुकाशेंको प्रोपेगंडा, दमन और अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं। पुतिन के सभी हथकंडे पुराने पड़ चुके हैं। दोनों नेता सोवियत संघ के पतन से पैदा हुई अराजकता से राहत दिलाने का वादा कर सत्ता में आए हैं। लुकाशेंको ने सोवियत संघ जैसी स्थिति जारी रहने की बात कही थी। पुतिन के सत्ता संभालने के बाद किस्मत से तेल के मूल्य बढ़ गए। सामान्य लोगों को फायदा तो हुआ, लेकिन उनके समर्थकों की चांदी रही। अर्थव्यवस्था को आगे नहीं ले जा सके पुतिन, लुकाशेंको दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर डालिए। बेलारूस पूर्व सोवियत संघ की तर्ज पर चल रहा है। अधिकतर निर्यात पोटाश और रूस से रिफाइन किए गए पेट्रोलियम पदार्थों का होता है। वहीं रूस की अर्थव्यवस्था में अधिक खुलापन है। लेकिन, इंडस्ट्री और फाइनेंस सेक्टर पर पुतिन के भरोसेमंद पूंजीपतियों का कब्जा है। इस कारण प्रतिस्पर्धा और गतिशीलता का अभाव है। पुतिन पेट्रो पदार्थों से अलग हटकर कुछ नहीं कर पाए हैं। इसलिए तेल की कीमतों में गिरावट और कोरोना वायरस के प्रकोप की दोहरी मार ने अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। तंगी के दौर में उनके पास राष्ट्रवाद और पुराने दिनों की याद दिलाने का झुनझुना भर है। पुतिन ने पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है पिछले दो दशक से पुतिन ने जारशाही और सोवियत संघ के पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है। उनका शासन गलत सूचनाएं फैलाने में माहिर है। उसने इंटरनेट पर ट्रोलर्स की फैक्ट्री खोल रखी है। एक टिप्पणीकार का कहना है, पुतिन ने मीडिया में ऐसा माहौल रचा है, जहां कुछ भी सच नहीं है और सब कुछ संभव है। फिर भी, पुतिन नावाल्नी के सामने थके हुए लगते हैं। नावाल्नी के लोकप्रिय यूट्यूब वीडियो लोगों के बीच हताशा की झलक दिखाते हैं। उनमें पुतिन सरकार के भ्रष्टाचार का चित्रण गहरी रिसर्च के साथ किया गया है। दोनों नेताओं के उत्तराधिकारी भी नापसंद आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जीवन में नाकाम पुतिन और लुकाशेंको अपनी सरकार को नया स्वरूप नहीं दे पाए हैं। उनका कोई स्वीकार्य उत्तराधिकारी नहीं है। लुकाशेंको ने अभी हाल में अपने 15 साल के बेटे को फौजी पोशाक में पेश किया है। पुतिन आसानी से अपना उत्तराधिकारी तैयार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इससे उनके गुट में अंसतोष पैदा होगा। उन्होंने इस साल 2036 तक स्वयं सत्ता में रहने के लिए संविधान में बदलाव किया है। उस समय उनकी आयु 84 वर्ष हो जाएगी। दूसरी ओर नावाल्नी 13 सितंबर को होने वाले क्षेत्रीय चुनावों के लिए विपक्षी मतों को एकजुट करने की कोशिश में लगे थे। नावाल्नी को जहर देने की घटना से साफ है कि तानाशाहों के पास जब कोई नया हथकंडा नहीं होता तो वे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। पुतिन ने रूस में माफिया जैसा साम्राज्य कायम कर रखा है रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है। सरकार नावाल्नी को जर्मनी भेजने में आनाकानी करती रही। उन्हें जहर देने की जांच कराने से भी इनकार कर दिया है। पुतिन ने नावाल्नी काे अदालतों के माध्यम से कई बार कैद रखा है। उन्हें चुनाव में हिस्सा नहीं लेने दिया गया। दोनों नेताओं ने मीडिया को पालतू बनाकर अपनी छवि उजली रखी है। लुकाशेंको पुराने जमाने के तानाशाह जैसा बर्ताव करते हैं। उन्होंने पिछले सप्ताह एक हेलीकॉप्टर में घूमते और एके-47 गन दिखाते हुए अपना वीडियो जारी करवाया है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है। https://ift.tt/3gzF9Pf Dainik Bhaskar रूस और बेलारूस की जनता तानाशाह शासकों से ऊब रही, विपक्षी नेता को जहर देने के मामले में पुतिन पर सवाल

पूर्व सोवियत संघ के दो प्रमुख देशों रूस और बेलारूस में वर्षों से सत्ता में जमे तानाशाहों के खिलाफ असंतोष उबल रहा है। बेलारूस में हजारों लोग...
- August 29, 2020
पूर्व सोवियत संघ के दो प्रमुख देशों रूस और बेलारूस में वर्षों से सत्ता में जमे तानाशाहों के खिलाफ असंतोष उबल रहा है। बेलारूस में हजारों लोगों ने सड़कों पर आकर चुनावी धांधली के खिलाफ आवाज उठाई है। बेलारूस की स्थिति ने 1989 की बगावत की याद दिलाई है। रूसी शहर खबरोवस्क में कई सप्ताह से हजारों लोग स्थानीय गर्वनर की गिरफ्तारी और केंद्र सरकार की मनमानी का विरोध कर रहे हैं। राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भयभीत लगते हैं। उनके सबसे लोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी अलेक्सी नावाल्नी बर्लिन, जर्मनी के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। उन्हें जहर दिया गया है। अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं पुतिन और मिंस्क, बेलारूस में एलेक्जेंडर लुकाशेंको प्रोपेगंडा, दमन और अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं। पुतिन के सभी हथकंडे पुराने पड़ चुके हैं। दोनों नेता सोवियत संघ के पतन से पैदा हुई अराजकता से राहत दिलाने का वादा कर सत्ता में आए हैं। लुकाशेंको ने सोवियत संघ जैसी स्थिति जारी रहने की बात कही थी। पुतिन के सत्ता संभालने के बाद किस्मत से तेल के मूल्य बढ़ गए। सामान्य लोगों को फायदा तो हुआ, लेकिन उनके समर्थकों की चांदी रही। अर्थव्यवस्था को आगे नहीं ले जा सके पुतिन, लुकाशेंको दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर डालिए। बेलारूस पूर्व सोवियत संघ की तर्ज पर चल रहा है। अधिकतर निर्यात पोटाश और रूस से रिफाइन किए गए पेट्रोलियम पदार्थों का होता है। वहीं रूस की अर्थव्यवस्था में अधिक खुलापन है। लेकिन, इंडस्ट्री और फाइनेंस सेक्टर पर पुतिन के भरोसेमंद पूंजीपतियों का कब्जा है। इस कारण प्रतिस्पर्धा और गतिशीलता का अभाव है। पुतिन पेट्रो पदार्थों से अलग हटकर कुछ नहीं कर पाए हैं। इसलिए तेल की कीमतों में गिरावट और कोरोना वायरस के प्रकोप की दोहरी मार ने अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। तंगी के दौर में उनके पास राष्ट्रवाद और पुराने दिनों की याद दिलाने का झुनझुना भर है। पुतिन ने पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है पिछले दो दशक से पुतिन ने जारशाही और सोवियत संघ के पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है। उनका शासन गलत सूचनाएं फैलाने में माहिर है। उसने इंटरनेट पर ट्रोलर्स की फैक्ट्री खोल रखी है। एक टिप्पणीकार का कहना है, पुतिन ने मीडिया में ऐसा माहौल रचा है, जहां कुछ भी सच नहीं है और सब कुछ संभव है। फिर भी, पुतिन नावाल्नी के सामने थके हुए लगते हैं। नावाल्नी के लोकप्रिय यूट्यूब वीडियो लोगों के बीच हताशा की झलक दिखाते हैं। उनमें पुतिन सरकार के भ्रष्टाचार का चित्रण गहरी रिसर्च के साथ किया गया है। दोनों नेताओं के उत्तराधिकारी भी नापसंद आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जीवन में नाकाम पुतिन और लुकाशेंको अपनी सरकार को नया स्वरूप नहीं दे पाए हैं। उनका कोई स्वीकार्य उत्तराधिकारी नहीं है। लुकाशेंको ने अभी हाल में अपने 15 साल के बेटे को फौजी पोशाक में पेश किया है। पुतिन आसानी से अपना उत्तराधिकारी तैयार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इससे उनके गुट में अंसतोष पैदा होगा। उन्होंने इस साल 2036 तक स्वयं सत्ता में रहने के लिए संविधान में बदलाव किया है। उस समय उनकी आयु 84 वर्ष हो जाएगी। दूसरी ओर नावाल्नी 13 सितंबर को होने वाले क्षेत्रीय चुनावों के लिए विपक्षी मतों को एकजुट करने की कोशिश में लगे थे। नावाल्नी को जहर देने की घटना से साफ है कि तानाशाहों के पास जब कोई नया हथकंडा नहीं होता तो वे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। पुतिन ने रूस में माफिया जैसा साम्राज्य कायम कर रखा है रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है। सरकार नावाल्नी को जर्मनी भेजने में आनाकानी करती रही। उन्हें जहर देने की जांच कराने से भी इनकार कर दिया है। पुतिन ने नावाल्नी काे अदालतों के माध्यम से कई बार कैद रखा है। उन्हें चुनाव में हिस्सा नहीं लेने दिया गया। दोनों नेताओं ने मीडिया को पालतू बनाकर अपनी छवि उजली रखी है। लुकाशेंको पुराने जमाने के तानाशाह जैसा बर्ताव करते हैं। उन्होंने पिछले सप्ताह एक हेलीकॉप्टर में घूमते और एके-47 गन दिखाते हुए अपना वीडियो जारी करवाया है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है। https://ift.tt/3gzF9Pf Dainik Bhaskar रूस और बेलारूस की जनता तानाशाह शासकों से ऊब रही, विपक्षी नेता को जहर देने के मामले में पुतिन पर सवाल 

पूर्व सोवियत संघ के दो प्रमुख देशों रूस और बेलारूस में वर्षों से सत्ता में जमे तानाशाहों के खिलाफ असंतोष उबल रहा है। बेलारूस में हजारों लोगों ने सड़कों पर आकर चुनावी धांधली के खिलाफ आवाज उठाई है। बेलारूस की स्थिति ने 1989 की बगावत की याद दिलाई है। रूसी शहर खबरोवस्क में कई सप्ताह से हजारों लोग स्थानीय गर्वनर की गिरफ्तारी और केंद्र सरकार की मनमानी का विरोध कर रहे हैं। राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भयभीत लगते हैं। उनके सबसे लोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी अलेक्सी नावाल्नी बर्लिन, जर्मनी के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। उन्हें जहर दिया गया है।

अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं

पुतिन और मिंस्क, बेलारूस में एलेक्जेंडर लुकाशेंको प्रोपेगंडा, दमन और अपने समर्थकों को संरक्षण देकर टिके हुए हैं। पुतिन के सभी हथकंडे पुराने पड़ चुके हैं। दोनों नेता सोवियत संघ के पतन से पैदा हुई अराजकता से राहत दिलाने का वादा कर सत्ता में आए हैं। लुकाशेंको ने सोवियत संघ जैसी स्थिति जारी रहने की बात कही थी। पुतिन के सत्ता संभालने के बाद किस्मत से तेल के मूल्य बढ़ गए। सामान्य लोगों को फायदा तो हुआ, लेकिन उनके समर्थकों की चांदी रही।

अर्थव्यवस्था को आगे नहीं ले जा सके पुतिन, लुकाशेंको

दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर डालिए। बेलारूस पूर्व सोवियत संघ की तर्ज पर चल रहा है। अधिकतर निर्यात पोटाश और रूस से रिफाइन किए गए पेट्रोलियम पदार्थों का होता है। वहीं रूस की अर्थव्यवस्था में अधिक खुलापन है। लेकिन, इंडस्ट्री और फाइनेंस सेक्टर पर पुतिन के भरोसेमंद पूंजीपतियों का कब्जा है। इस कारण प्रतिस्पर्धा और गतिशीलता का अभाव है। पुतिन पेट्रो पदार्थों से अलग हटकर कुछ नहीं कर पाए हैं। इसलिए तेल की कीमतों में गिरावट और कोरोना वायरस के प्रकोप की दोहरी मार ने अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। तंगी के दौर में उनके पास राष्ट्रवाद और पुराने दिनों की याद दिलाने का झुनझुना भर है।

पुतिन ने पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है

पिछले दो दशक से पुतिन ने जारशाही और सोवियत संघ के पुराने गौरव का काल्पनिक ढोल पीट रखा है। उनका शासन गलत सूचनाएं फैलाने में माहिर है। उसने इंटरनेट पर ट्रोलर्स की फैक्ट्री खोल रखी है। एक टिप्पणीकार का कहना है, पुतिन ने मीडिया में ऐसा माहौल रचा है, जहां कुछ भी सच नहीं है और सब कुछ संभव है। फिर भी, पुतिन नावाल्नी के सामने थके हुए लगते हैं। नावाल्नी के लोकप्रिय यूट्यूब वीडियो लोगों के बीच हताशा की झलक दिखाते हैं। उनमें पुतिन सरकार के भ्रष्टाचार का चित्रण गहरी रिसर्च के साथ किया गया है।

दोनों नेताओं के उत्तराधिकारी भी नापसंद

आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जीवन में नाकाम पुतिन और लुकाशेंको अपनी सरकार को नया स्वरूप नहीं दे पाए हैं। उनका कोई स्वीकार्य उत्तराधिकारी नहीं है। लुकाशेंको ने अभी हाल में अपने 15 साल के बेटे को फौजी पोशाक में पेश किया है। पुतिन आसानी से अपना उत्तराधिकारी तैयार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इससे उनके गुट में अंसतोष पैदा होगा।

उन्होंने इस साल 2036 तक स्वयं सत्ता में रहने के लिए संविधान में बदलाव किया है। उस समय उनकी आयु 84 वर्ष हो जाएगी। दूसरी ओर नावाल्नी 13 सितंबर को होने वाले क्षेत्रीय चुनावों के लिए विपक्षी मतों को एकजुट करने की कोशिश में लगे थे। नावाल्नी को जहर देने की घटना से साफ है कि तानाशाहों के पास जब कोई नया हथकंडा नहीं होता तो वे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

पुतिन ने रूस में माफिया जैसा साम्राज्य कायम कर रखा है

रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है। सरकार नावाल्नी को जर्मनी भेजने में आनाकानी करती रही। उन्हें जहर देने की जांच कराने से भी इनकार कर दिया है। पुतिन ने नावाल्नी काे अदालतों के माध्यम से कई बार कैद रखा है। उन्हें चुनाव में हिस्सा नहीं लेने दिया गया। दोनों नेताओं ने मीडिया को पालतू बनाकर अपनी छवि उजली रखी है। लुकाशेंको पुराने जमाने के तानाशाह जैसा बर्ताव करते हैं। उन्होंने पिछले सप्ताह एक हेलीकॉप्टर में घूमते और एके-47 गन दिखाते हुए अपना वीडियो जारी करवाया है।

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रूस में व्लीदीमीर पुतिन ने माफिया जैसे शासन का निर्माण किया है।

https://ift.tt/3gzF9Pf Dainik Bhaskar रूस और बेलारूस की जनता तानाशाह शासकों से ऊब रही, विपक्षी नेता को जहर देने के मामले में पुतिन पर सवाल Reviewed by Manish Pethev on August 29, 2020 Rating: 5

कोरोनावायरस संकट के बीच 30 से ज्यादा वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल चल रहा है। वे वैज्ञानिक परीक्षणों के कठिन चरणों से गुजर रही हैं। द न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक, 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है। दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को वैक्सीन के प्रभाव को लेकर भी चिंता है। ब्राजील के साओ पाउलो में वैक्सीन शोधकर्ता लुसियाना लेइट कहते हैं, ‘हमें अभी भी पता नहीं है कि सुरक्षा के लिए किस तरह की इम्युनिटी महत्वपूर्ण होगी।’ जॉर्जिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलॉजी के डायरेक्टर टेड रॉस कहते हैं- ‘चिंता इस बात की है कि पहली वैक्सीन बाद में भी उतनी ही प्रभावी रहेगी या नहीं। ऐसे में अलग-अलग रणनीति पर काम करने की जरूरत है।’ कई कंपनियां आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसी वैक्सीन पर दांव लगा रही है, जो उम्मीद जगाती हैं। अमेरिका में एक ऐसी वैक्सीन पर काम हो रहा है, जो शरीर को संक्रमण रोकने के लिए तैयार करेगी। इसमें स्पाइक नाम का प्रोटीन डेवलप होगा, जो कोरोनावायरस को कवर कर रोक देगा। यह एंटीबॉडी भी बनाएगी। वहीं, एपिविक्स कोरोनोवायरस के कई हिस्सों से बने टीकों का परीक्षण कर रही है, जिससे पता लगा सके कि उसे कैसे रोक सकते हैं। नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती एपिविक्स के सीईओ एनी डी ग्रोट कहते हैं- ‘यह सुरक्षा की दूसरी लेयर है, जो एंटीबॉडी से बेहतर काम कर सकती है।’ डॉ. वेस्लर के सहयोगी नील किंग की स्टार्ट-अप आइकोसेवैक्स इस साल नैनोपार्टिकल वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल करेगी। इनके अलावा अमेरिका के वॉल्टर रीड आर्मी इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता भी नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती कर रहे हैं। इस साल के अंत तक इसका ट्रायल होगा।' नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन न्यूयॉर्क की कोडाजेनिक्स नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन बना रही है। इसके शोधकर्ता कोरोनावायरस के सिंथेटिक संस्करण पर प्रयोग कर रहे हैं। इसका पहला ट्रायल सितंबर में होगा। उनके मुताबिक यह इन्फ्लूएंजा के फ्लुविस्ट की तरह प्रभावी हो सकती है, क्योंकि वायरस सांस के जरिए ही शरीर में जाता है। चीनः ट्रायल पूरा होने से पहले 2 वैक्सीन के इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी चीन में कोरोनावैक वैक्सीन के इमरजेंसी में इस्तेमाल को मंजूरी दे दी गई है। चौंकाने वाली बात यह है कि इसका अभी तक ट्रायल भी पूरा नहीं हुआ है। इसका इस्तेमाल एक कार्यक्रम के भाग के रूप में किया जा रहा है। यह ज्यादा जोखिम वाले समूह जैसे मेडिकल, नर्सिंग स्टाफ और उन लोगों को लगाई जाएगी, जिन्हें संक्रमण का खतरा ज्यादा है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है।  https://ift.tt/3lv43TS Dainik Bhaskar किसी एक वैक्सीन के हमेशा प्रभावी रहने पर संदेह है इसलिए प्रोटीन, मृत वायरस और नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन भी बना रहे वैज्ञानिक

कोरोनावायरस संकट के बीच 30 से ज्यादा वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल चल रहा है। वे वैज्ञानिक परीक्षणों के कठिन चरणों से गुजर रही हैं। द न्यूयॉ...
- August 29, 2020
कोरोनावायरस संकट के बीच 30 से ज्यादा वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल चल रहा है। वे वैज्ञानिक परीक्षणों के कठिन चरणों से गुजर रही हैं। द न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक, 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है। दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को वैक्सीन के प्रभाव को लेकर भी चिंता है। ब्राजील के साओ पाउलो में वैक्सीन शोधकर्ता लुसियाना लेइट कहते हैं, ‘हमें अभी भी पता नहीं है कि सुरक्षा के लिए किस तरह की इम्युनिटी महत्वपूर्ण होगी।’ जॉर्जिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलॉजी के डायरेक्टर टेड रॉस कहते हैं- ‘चिंता इस बात की है कि पहली वैक्सीन बाद में भी उतनी ही प्रभावी रहेगी या नहीं। ऐसे में अलग-अलग रणनीति पर काम करने की जरूरत है।’ कई कंपनियां आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसी वैक्सीन पर दांव लगा रही है, जो उम्मीद जगाती हैं। अमेरिका में एक ऐसी वैक्सीन पर काम हो रहा है, जो शरीर को संक्रमण रोकने के लिए तैयार करेगी। इसमें स्पाइक नाम का प्रोटीन डेवलप होगा, जो कोरोनावायरस को कवर कर रोक देगा। यह एंटीबॉडी भी बनाएगी। वहीं, एपिविक्स कोरोनोवायरस के कई हिस्सों से बने टीकों का परीक्षण कर रही है, जिससे पता लगा सके कि उसे कैसे रोक सकते हैं। नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती एपिविक्स के सीईओ एनी डी ग्रोट कहते हैं- ‘यह सुरक्षा की दूसरी लेयर है, जो एंटीबॉडी से बेहतर काम कर सकती है।’ डॉ. वेस्लर के सहयोगी नील किंग की स्टार्ट-अप आइकोसेवैक्स इस साल नैनोपार्टिकल वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल करेगी। इनके अलावा अमेरिका के वॉल्टर रीड आर्मी इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता भी नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती कर रहे हैं। इस साल के अंत तक इसका ट्रायल होगा।' नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन न्यूयॉर्क की कोडाजेनिक्स नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन बना रही है। इसके शोधकर्ता कोरोनावायरस के सिंथेटिक संस्करण पर प्रयोग कर रहे हैं। इसका पहला ट्रायल सितंबर में होगा। उनके मुताबिक यह इन्फ्लूएंजा के फ्लुविस्ट की तरह प्रभावी हो सकती है, क्योंकि वायरस सांस के जरिए ही शरीर में जाता है। चीनः ट्रायल पूरा होने से पहले 2 वैक्सीन के इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी चीन में कोरोनावैक वैक्सीन के इमरजेंसी में इस्तेमाल को मंजूरी दे दी गई है। चौंकाने वाली बात यह है कि इसका अभी तक ट्रायल भी पूरा नहीं हुआ है। इसका इस्तेमाल एक कार्यक्रम के भाग के रूप में किया जा रहा है। यह ज्यादा जोखिम वाले समूह जैसे मेडिकल, नर्सिंग स्टाफ और उन लोगों को लगाई जाएगी, जिन्हें संक्रमण का खतरा ज्यादा है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है।  https://ift.tt/3lv43TS Dainik Bhaskar किसी एक वैक्सीन के हमेशा प्रभावी रहने पर संदेह है इसलिए प्रोटीन, मृत वायरस और नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन भी बना रहे वैज्ञानिक 

कोरोनावायरस संकट के बीच 30 से ज्यादा वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल चल रहा है। वे वैज्ञानिक परीक्षणों के कठिन चरणों से गुजर रही हैं। द न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक, 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है।

दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को वैक्सीन के प्रभाव को लेकर भी चिंता है। ब्राजील के साओ पाउलो में वैक्सीन शोधकर्ता लुसियाना लेइट कहते हैं, ‘हमें अभी भी पता नहीं है कि सुरक्षा के लिए किस तरह की इम्युनिटी महत्वपूर्ण होगी।’

जॉर्जिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलॉजी के डायरेक्टर टेड रॉस कहते हैं- ‘चिंता इस बात की है कि पहली वैक्सीन बाद में भी उतनी ही प्रभावी रहेगी या नहीं। ऐसे में अलग-अलग रणनीति पर काम करने की जरूरत है।’ कई कंपनियां आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसी वैक्सीन पर दांव लगा रही है, जो उम्मीद जगाती हैं।

अमेरिका में एक ऐसी वैक्सीन पर काम हो रहा है, जो शरीर को संक्रमण रोकने के लिए तैयार करेगी। इसमें स्पाइक नाम का प्रोटीन डेवलप होगा, जो कोरोनावायरस को कवर कर रोक देगा। यह एंटीबॉडी भी बनाएगी। वहीं, एपिविक्स कोरोनोवायरस के कई हिस्सों से बने टीकों का परीक्षण कर रही है, जिससे पता लगा सके कि उसे कैसे रोक सकते हैं।

नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती

एपिविक्स के सीईओ एनी डी ग्रोट कहते हैं- ‘यह सुरक्षा की दूसरी लेयर है, जो एंटीबॉडी से बेहतर काम कर सकती है।’ डॉ. वेस्लर के सहयोगी नील किंग की स्टार्ट-अप आइकोसेवैक्स इस साल नैनोपार्टिकल वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल करेगी। इनके अलावा अमेरिका के वॉल्टर रीड आर्मी इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता भी नैनोपार्टिकल वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए वॉलंटियर भर्ती कर रहे हैं। इस साल के अंत तक इसका ट्रायल होगा।'

नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन

न्यूयॉर्क की कोडाजेनिक्स नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन बना रही है। इसके शोधकर्ता कोरोनावायरस के सिंथेटिक संस्करण पर प्रयोग कर रहे हैं। इसका पहला ट्रायल सितंबर में होगा। उनके मुताबिक यह इन्फ्लूएंजा के फ्लुविस्ट की तरह प्रभावी हो सकती है, क्योंकि वायरस सांस के जरिए ही शरीर में जाता है।

चीनः ट्रायल पूरा होने से पहले 2 वैक्सीन के इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी
चीन में कोरोनावैक वैक्सीन के इमरजेंसी में इस्तेमाल को मंजूरी दे दी गई है। चौंकाने वाली बात यह है कि इसका अभी तक ट्रायल भी पूरा नहीं हुआ है। इसका इस्तेमाल एक कार्यक्रम के भाग के रूप में किया जा रहा है। यह ज्यादा जोखिम वाले समूह जैसे मेडिकल, नर्सिंग स्टाफ और उन लोगों को लगाई जाएगी, जिन्हें संक्रमण का खतरा ज्यादा है।

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न्यूयॉर्क टाइम्स को मिली जानकारी के मुताबिक 88 वैक्सीन का प्री-क्लीनिकल ट्रायल चल रहा है। इनमें से 67 वैक्सीन 2021 के अंत तक क्लीनिकल ट्रायल के स्तर पर आने की उम्मीद है। 

https://ift.tt/3lv43TS Dainik Bhaskar किसी एक वैक्सीन के हमेशा प्रभावी रहने पर संदेह है इसलिए प्रोटीन, मृत वायरस और नाक से स्प्रे वाली वैक्सीन भी बना रहे वैज्ञानिक Reviewed by Manish Pethev on August 29, 2020 Rating: 5

कांग्रेस का ‘लेटर बम’, जो ठीक से फटा भी नहीं, उसके परिणामस्वरूप इस पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी को लेकर काफी चिंता जताई जा रही है। कांग्रेस पार्टी के गांधियों के प्रति जुनून को समझाने के लिए इसे अक्सर ‘परिवार संचालित प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ कहते हैं। इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस के विभाजन के बाद से 51 साल में केवल सात साल छोड़कर, ‘नई’ कांग्रेस का नियंत्रण नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में ही रहा है। एक हद तक वंशवादी पार्टी होने का आरोप सही लगता है। लेकिन, क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से कम ‘लोकतांत्रिक’ है? शायद नहीं। भाजपा का ही उदाहरण ले लें। भाजपा ने कब अध्यक्ष पद या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने के लिए खुला चुनाव करवाया? जब 2014 में राजनाथ सिंह का कार्यकाल समाप्त हुआ, तब प्रधानमंत्री के करीबी अमित शाह को सर्वसम्मति से भाजपा प्रमुख ‘चुना’ गया। फिर 2019 में जेपी नड्‌डा भी ‘चुने’ गए, इसलिए नहीं कि वे लोकप्रिय थे, बल्कि इसलिए कि वे एक सुशील नेता हैं, जिसका कोई बड़ा जनाधार नहीं है, जो नाव को हिलाएगा नहीं। यह भी तथ्य है कि 2013 में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला आरएसएस हेडक्वार्टर, नागपुर के हेडगेवार भवन में लिया गया था। उसके लिए पार्टी में कोई चुनाव नहीं हुआ था। जब लालकृष्ण आडवाणी ने विरोध जताया तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया, जो स्पष्ट संकेत था कि भाजपा में ‘चुने हुए’ को चुनौती देना सहा नहीं जाता। इसके विपरीत, सोनिया गांधी वंशवादी सिद्धांत की स्वाभाविक लाभार्थी हैं, जो राजनीति में आ ही इसलिए पाईं, क्योंकि वे गांधी परिवार की ‘बहू’ हैं। उन्होंने 1998 में ‘रक्तहीन आघात’ में सीताराम केसरी की जगह ली थी, फिर भी उन्होंने कम से कम ‘चुनाव’ लड़ने की परंपरा निभाते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता जितेंद्र प्रसाद को हराया था। प्रसाद ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी, फिर भी उनके बेटे जितिन यूपीए सरकार में मंत्री बने। ‘भूलो और माफ करो’ दृष्टिकोण के कारण ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल मामले में चुनौती देकर पार्टी छोड़ने वाले शरद पवार वास्तव में महाराष्ट्र और केंद्र में मूल्यवान सहयोगी माने गए। और अभी भी सोनिया दावा करती हैं कि उनके मन में चिट्‌ठी लिखने वालों के प्रति कोई ‘द्वेष’ नहीं है। तुलना करें तो पाएंगे कि भाजपा में मत विरोधियों की पार्टी में सक्रिय भूमिका कम ही नजर आती है। 1970 के दशक में, जब जनसंघ के कद्दावर नेता बलराज मधोक वाजपेयी-आडवाणी द्वय के खिलाफ खड़े हुए तो पार्टी से ही गायब हो गए। जब गोविंदाचार्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा, तो उनसे पार्टी के सारे पद छीन लिए गए। हाल के समय में वे सभी भाजपा नेता, जिनका कभी गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने टकराव था, व्यवस्थित ढंग से हटा दिए गए। क्या भाजपा में कोई प्रधानमंत्री पर सवाल उठाते हुए चिट्‌ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है? क्या पिछले 6 सालों में पार्टी में किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर बहस हुई है या पार्टी पूरी तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन हो गई है? सच्चाई यह है कि जहां कांग्रेस बेशक ज्यादा वंशवादी है, लेकिन आज की भाजपा से शायद ज्यादा लोकतांत्रिक है। जहां कांग्रेस में लगता है कि शीर्ष पद एक परिवार के लिए आरक्षित है, भाजपा ने पार्टी प्रमुख पद के लिए बाहरी को अवसर दिए। लेकिन भाजपा का अब अपना एक राजनीतिक सुप्रीमो है, जिसपर कोई सवाल नहीं उठा सकता। और उन क्षेत्रीय पार्टियों का क्या? ज्यादातर पार्टियों ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों के बुरे गुण अपनाए हैं। लगभग सभी परिवारों की जागीर हैं। किसी भी पार्टी में विरोधी सुर नहीं सहा जाता और फैसले लेने में शायद ही कभी परामर्श लिया जाता है। मसलन क्या तृणमूल कांग्रेस में कोई ममता बनर्जी के नेतृत्व पर सवाल उठा सकता है? यहां तक कि सामाजिक और राजनीतिक मंथन के बाद बनीं राजनीतिक पार्टियां भी परिवार संचालित एंटरप्राइज बन गईं। जैसे तमिलनाडु में डीएमके। यहां तक कि जन आंदोलन से उभरने का दावा करने वाली ‘आप’ भी अपने ‘सुप्रीम लीडर’ अरविंद केजरीवाल की शख्सियत से पहचानी जाती है। दक्षिणपंथी पार्टियां भी पार्टी में बहस और मुख्य पदों के लिए चुनावों को लेकर प्रतिकूल हैं। ऐसे में शायद भारतीय संदर्भ में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की धारणा अतिश्योक्तिपूर्ण है। भारत में किसी भी विरोध को विभाजनकारी और पार्टी के टूटने का जोखिम माना जाता है। इसकी जगह ‘लोकतांत्रिक सर्वसम्मति’ की भावना से नेता के आदेश के पालन की स्पष्ट प्रवृत्ति है। शायद हमारी लोकतांत्रिक भावना की सच्ची परीक्षा तब होगी, जब कुछ महीने बाद प्रस्तावित कांग्रेस सेशन में वास्तव में कार्यसमिति और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हों। कार्यसमिति की बैठक से पहले ‘23 की गैंग’ के एक सदस्य ने मुझसे कहा था कि विवादास्पद चिट्‌ठी का लक्ष्य गांधी परिवार को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि पार्टी का पुनरुत्थान था। उन्होंने मुझसे निवेदन किया, ‘लेकिन यह सब ऑफ रिकॉर्ड है, वरना मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।’ जब डर ही बुनियाद हो, क्या पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को वाकई में अपनाया जा सकता है? (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार https://ift.tt/3jtDmNL Dainik Bhaskar कांग्रेस पर वंशवादी होने का आरोप एक हद तक सही, पर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में भी आंतरिक लोकतंत्र नजर नहीं आता

कांग्रेस का ‘लेटर बम’, जो ठीक से फटा भी नहीं, उसके परिणामस्वरूप इस पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी को लेकर काफी चिंता जताई जा रही ...
- August 29, 2020
कांग्रेस का ‘लेटर बम’, जो ठीक से फटा भी नहीं, उसके परिणामस्वरूप इस पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी को लेकर काफी चिंता जताई जा रही है। कांग्रेस पार्टी के गांधियों के प्रति जुनून को समझाने के लिए इसे अक्सर ‘परिवार संचालित प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ कहते हैं। इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस के विभाजन के बाद से 51 साल में केवल सात साल छोड़कर, ‘नई’ कांग्रेस का नियंत्रण नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में ही रहा है। एक हद तक वंशवादी पार्टी होने का आरोप सही लगता है। लेकिन, क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से कम ‘लोकतांत्रिक’ है? शायद नहीं। भाजपा का ही उदाहरण ले लें। भाजपा ने कब अध्यक्ष पद या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने के लिए खुला चुनाव करवाया? जब 2014 में राजनाथ सिंह का कार्यकाल समाप्त हुआ, तब प्रधानमंत्री के करीबी अमित शाह को सर्वसम्मति से भाजपा प्रमुख ‘चुना’ गया। फिर 2019 में जेपी नड्‌डा भी ‘चुने’ गए, इसलिए नहीं कि वे लोकप्रिय थे, बल्कि इसलिए कि वे एक सुशील नेता हैं, जिसका कोई बड़ा जनाधार नहीं है, जो नाव को हिलाएगा नहीं। यह भी तथ्य है कि 2013 में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला आरएसएस हेडक्वार्टर, नागपुर के हेडगेवार भवन में लिया गया था। उसके लिए पार्टी में कोई चुनाव नहीं हुआ था। जब लालकृष्ण आडवाणी ने विरोध जताया तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया, जो स्पष्ट संकेत था कि भाजपा में ‘चुने हुए’ को चुनौती देना सहा नहीं जाता। इसके विपरीत, सोनिया गांधी वंशवादी सिद्धांत की स्वाभाविक लाभार्थी हैं, जो राजनीति में आ ही इसलिए पाईं, क्योंकि वे गांधी परिवार की ‘बहू’ हैं। उन्होंने 1998 में ‘रक्तहीन आघात’ में सीताराम केसरी की जगह ली थी, फिर भी उन्होंने कम से कम ‘चुनाव’ लड़ने की परंपरा निभाते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता जितेंद्र प्रसाद को हराया था। प्रसाद ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी, फिर भी उनके बेटे जितिन यूपीए सरकार में मंत्री बने। ‘भूलो और माफ करो’ दृष्टिकोण के कारण ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल मामले में चुनौती देकर पार्टी छोड़ने वाले शरद पवार वास्तव में महाराष्ट्र और केंद्र में मूल्यवान सहयोगी माने गए। और अभी भी सोनिया दावा करती हैं कि उनके मन में चिट्‌ठी लिखने वालों के प्रति कोई ‘द्वेष’ नहीं है। तुलना करें तो पाएंगे कि भाजपा में मत विरोधियों की पार्टी में सक्रिय भूमिका कम ही नजर आती है। 1970 के दशक में, जब जनसंघ के कद्दावर नेता बलराज मधोक वाजपेयी-आडवाणी द्वय के खिलाफ खड़े हुए तो पार्टी से ही गायब हो गए। जब गोविंदाचार्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा, तो उनसे पार्टी के सारे पद छीन लिए गए। हाल के समय में वे सभी भाजपा नेता, जिनका कभी गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने टकराव था, व्यवस्थित ढंग से हटा दिए गए। क्या भाजपा में कोई प्रधानमंत्री पर सवाल उठाते हुए चिट्‌ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है? क्या पिछले 6 सालों में पार्टी में किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर बहस हुई है या पार्टी पूरी तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन हो गई है? सच्चाई यह है कि जहां कांग्रेस बेशक ज्यादा वंशवादी है, लेकिन आज की भाजपा से शायद ज्यादा लोकतांत्रिक है। जहां कांग्रेस में लगता है कि शीर्ष पद एक परिवार के लिए आरक्षित है, भाजपा ने पार्टी प्रमुख पद के लिए बाहरी को अवसर दिए। लेकिन भाजपा का अब अपना एक राजनीतिक सुप्रीमो है, जिसपर कोई सवाल नहीं उठा सकता। और उन क्षेत्रीय पार्टियों का क्या? ज्यादातर पार्टियों ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों के बुरे गुण अपनाए हैं। लगभग सभी परिवारों की जागीर हैं। किसी भी पार्टी में विरोधी सुर नहीं सहा जाता और फैसले लेने में शायद ही कभी परामर्श लिया जाता है। मसलन क्या तृणमूल कांग्रेस में कोई ममता बनर्जी के नेतृत्व पर सवाल उठा सकता है? यहां तक कि सामाजिक और राजनीतिक मंथन के बाद बनीं राजनीतिक पार्टियां भी परिवार संचालित एंटरप्राइज बन गईं। जैसे तमिलनाडु में डीएमके। यहां तक कि जन आंदोलन से उभरने का दावा करने वाली ‘आप’ भी अपने ‘सुप्रीम लीडर’ अरविंद केजरीवाल की शख्सियत से पहचानी जाती है। दक्षिणपंथी पार्टियां भी पार्टी में बहस और मुख्य पदों के लिए चुनावों को लेकर प्रतिकूल हैं। ऐसे में शायद भारतीय संदर्भ में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की धारणा अतिश्योक्तिपूर्ण है। भारत में किसी भी विरोध को विभाजनकारी और पार्टी के टूटने का जोखिम माना जाता है। इसकी जगह ‘लोकतांत्रिक सर्वसम्मति’ की भावना से नेता के आदेश के पालन की स्पष्ट प्रवृत्ति है। शायद हमारी लोकतांत्रिक भावना की सच्ची परीक्षा तब होगी, जब कुछ महीने बाद प्रस्तावित कांग्रेस सेशन में वास्तव में कार्यसमिति और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हों। कार्यसमिति की बैठक से पहले ‘23 की गैंग’ के एक सदस्य ने मुझसे कहा था कि विवादास्पद चिट्‌ठी का लक्ष्य गांधी परिवार को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि पार्टी का पुनरुत्थान था। उन्होंने मुझसे निवेदन किया, ‘लेकिन यह सब ऑफ रिकॉर्ड है, वरना मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।’ जब डर ही बुनियाद हो, क्या पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को वाकई में अपनाया जा सकता है? (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार https://ift.tt/3jtDmNL Dainik Bhaskar कांग्रेस पर वंशवादी होने का आरोप एक हद तक सही, पर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में भी आंतरिक लोकतंत्र नजर नहीं आता 

कांग्रेस का ‘लेटर बम’, जो ठीक से फटा भी नहीं, उसके परिणामस्वरूप इस पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी को लेकर काफी चिंता जताई जा रही है। कांग्रेस पार्टी के गांधियों के प्रति जुनून को समझाने के लिए इसे अक्सर ‘परिवार संचालित प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ कहते हैं।

इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस के विभाजन के बाद से 51 साल में केवल सात साल छोड़कर, ‘नई’ कांग्रेस का नियंत्रण नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में ही रहा है। एक हद तक वंशवादी पार्टी होने का आरोप सही लगता है। लेकिन, क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से कम ‘लोकतांत्रिक’ है? शायद नहीं।

भाजपा का ही उदाहरण ले लें। भाजपा ने कब अध्यक्ष पद या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने के लिए खुला चुनाव करवाया? जब 2014 में राजनाथ सिंह का कार्यकाल समाप्त हुआ, तब प्रधानमंत्री के करीबी अमित शाह को सर्वसम्मति से भाजपा प्रमुख ‘चुना’ गया। फिर 2019 में जेपी नड्‌डा भी ‘चुने’ गए, इसलिए नहीं कि वे लोकप्रिय थे, बल्कि इसलिए कि वे एक सुशील नेता हैं, जिसका कोई बड़ा जनाधार नहीं है, जो नाव को हिलाएगा नहीं।

यह भी तथ्य है कि 2013 में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला आरएसएस हेडक्वार्टर, नागपुर के हेडगेवार भवन में लिया गया था। उसके लिए पार्टी में कोई चुनाव नहीं हुआ था। जब लालकृष्ण आडवाणी ने विरोध जताया तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया, जो स्पष्ट संकेत था कि भाजपा में ‘चुने हुए’ को चुनौती देना सहा नहीं जाता।

इसके विपरीत, सोनिया गांधी वंशवादी सिद्धांत की स्वाभाविक लाभार्थी हैं, जो राजनीति में आ ही इसलिए पाईं, क्योंकि वे गांधी परिवार की ‘बहू’ हैं। उन्होंने 1998 में ‘रक्तहीन आघात’ में सीताराम केसरी की जगह ली थी, फिर भी उन्होंने कम से कम ‘चुनाव’ लड़ने की परंपरा निभाते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता जितेंद्र प्रसाद को हराया था।

प्रसाद ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी, फिर भी उनके बेटे जितिन यूपीए सरकार में मंत्री बने। ‘भूलो और माफ करो’ दृष्टिकोण के कारण ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल मामले में चुनौती देकर पार्टी छोड़ने वाले शरद पवार वास्तव में महाराष्ट्र और केंद्र में मूल्यवान सहयोगी माने गए। और अभी भी सोनिया दावा करती हैं कि उनके मन में चिट्‌ठी लिखने वालों के प्रति कोई ‘द्वेष’ नहीं है।

तुलना करें तो पाएंगे कि भाजपा में मत विरोधियों की पार्टी में सक्रिय भूमिका कम ही नजर आती है।

1970 के दशक में, जब जनसंघ के कद्दावर नेता बलराज मधोक वाजपेयी-आडवाणी द्वय के खिलाफ खड़े हुए तो पार्टी से ही गायब हो गए। जब गोविंदाचार्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा, तो उनसे पार्टी के सारे पद छीन लिए गए। हाल के समय में वे सभी भाजपा नेता, जिनका कभी गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने टकराव था, व्यवस्थित ढंग से हटा दिए गए।

क्या भाजपा में कोई प्रधानमंत्री पर सवाल उठाते हुए चिट्‌ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है? क्या पिछले 6 सालों में पार्टी में किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर बहस हुई है या पार्टी पूरी तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन हो गई है?

सच्चाई यह है कि जहां कांग्रेस बेशक ज्यादा वंशवादी है, लेकिन आज की भाजपा से शायद ज्यादा लोकतांत्रिक है। जहां कांग्रेस में लगता है कि शीर्ष पद एक परिवार के लिए आरक्षित है, भाजपा ने पार्टी प्रमुख पद के लिए बाहरी को अवसर दिए। लेकिन भाजपा का अब अपना एक राजनीतिक सुप्रीमो है, जिसपर कोई सवाल नहीं उठा सकता। और उन क्षेत्रीय पार्टियों का क्या? ज्यादातर पार्टियों ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों के बुरे गुण अपनाए हैं। लगभग सभी परिवारों की जागीर हैं।

किसी भी पार्टी में विरोधी सुर नहीं सहा जाता और फैसले लेने में शायद ही कभी परामर्श लिया जाता है। मसलन क्या तृणमूल कांग्रेस में कोई ममता बनर्जी के नेतृत्व पर सवाल उठा सकता है? यहां तक कि सामाजिक और राजनीतिक मंथन के बाद बनीं राजनीतिक पार्टियां भी परिवार संचालित एंटरप्राइज बन गईं। जैसे तमिलनाडु में डीएमके।

यहां तक कि जन आंदोलन से उभरने का दावा करने वाली ‘आप’ भी अपने ‘सुप्रीम लीडर’ अरविंद केजरीवाल की शख्सियत से पहचानी जाती है। दक्षिणपंथी पार्टियां भी पार्टी में बहस और मुख्य पदों के लिए चुनावों को लेकर प्रतिकूल हैं। ऐसे में शायद भारतीय संदर्भ में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की धारणा अतिश्योक्तिपूर्ण है।

भारत में किसी भी विरोध को विभाजनकारी और पार्टी के टूटने का जोखिम माना जाता है। इसकी जगह ‘लोकतांत्रिक सर्वसम्मति’ की भावना से नेता के आदेश के पालन की स्पष्ट प्रवृत्ति है। शायद हमारी लोकतांत्रिक भावना की सच्ची परीक्षा तब होगी, जब कुछ महीने बाद प्रस्तावित कांग्रेस सेशन में वास्तव में कार्यसमिति और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हों।

कार्यसमिति की बैठक से पहले ‘23 की गैंग’ के एक सदस्य ने मुझसे कहा था कि विवादास्पद चिट्‌ठी का लक्ष्य गांधी परिवार को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि पार्टी का पुनरुत्थान था। उन्होंने मुझसे निवेदन किया, ‘लेकिन यह सब ऑफ रिकॉर्ड है, वरना मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।’ जब डर ही बुनियाद हो, क्या पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को वाकई में अपनाया जा सकता है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार

https://ift.tt/3jtDmNL Dainik Bhaskar कांग्रेस पर वंशवादी होने का आरोप एक हद तक सही, पर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में भी आंतरिक लोकतंत्र नजर नहीं आता Reviewed by Manish Pethev on August 29, 2020 Rating: 5

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुशांत सिंह राजपूत के मामले की सीबीआई, ईडी और अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा मुस्तैदी से जांच हो रही है। फिल्मी सितारों से जुड़ा निजी मामला अब मीडिया ट्रायल की वजह से देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। चार साल पहले अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी। 60 पेज के सुसाइड नोट के हर पेज में दस्तखत करके उन्होंने अफसरों, वकीलों, जजों और राजनेताओं के भ्रष्ट तंत्र का बड़ा खुलासा किया था। उस मामले में राज्यपाल की अनुशंसा के बावजूद मुख्यमंत्री की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ न तो जांच हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई। सुशांत की तर्ज पर कलिखो और बाद में उनके बेटे की हत्या/आत्महत्या के कारणों की सही जांच होती तो आज न्यायपालिका की साख पर इतने पैने सवाल नहीं उठते? अवमानना के ये मामले किसी एक वकील या जज के बीच माफी या सजा से खत्म नहीं हो सकते। पिछले पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक व्यवस्था में सुधार के पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर महत्वपूर्ण आदेश पारित किए, लेकिन उन पर अमल नहीं होने से अनेक बवंडर हो रहे हैं। इन मामलों के बहाने अदालती व्यवस्था का मंथन हो तो न्यायिक सुधारों के अमृत से पूरा देश लाभान्वित हो सकता है। 1. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की भर्ती में मनमानी से भाई-भतीजावाद पनपता है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार का बड़ा कारण है। इसे ठीक करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का कानून बनाया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने पांच साल पहले खारिज कर दिया। न्यायिक व्यवस्था की सड़ांध को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने उस फैसले में ग्लास्त्नोव (पारदर्शिता) और पेरोस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) को लागू करने की बात कही थी। पांच साल बीत गए, लेकिन मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर यानी एमओपी में माध्यम की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। 2. संसदीय समिति ने 1964 में निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बात कही थी। उसके 50 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के अनेक चीफ जस्टिस ने ऊंची अदालतों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को स्वीकार किया। संविधान के तहत जजों को सिर्फ महाभियोग की प्रक्रिया से ही हटा सकते हैं। 1991 में संविधान पीठ ने एक अजब फैसला दिया था, जिसके बाद चीफ जस्टिस की इजाजत के बगैर भ्रष्टाचार के मामलों में जजों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती। पिछले 70 सालों में भ्रष्टाचार के अनेक आरोप सिद्ध होने के बावजूद, एक भी जज महाभियोग के तहत नहीं हटाया गया और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई। इस पूरी बहस में यह समझना जरूरी है कि 10% या 20% जज भले ही भ्रष्ट हों, लेकिन बकाया 80% जज अभी भी मेहनती और ईमानदार हैं। अच्छे लोगों का सिस्टम पर भरोसा बना रहे, इसके लिए दागी जजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई जरूरी है। 3. तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमों की वजह से समाज त्रस्त, अर्थव्यवस्था ध्वस्त है। सीनियर एडवोकेट्स की वजह से वीआईपी मामलों का फैसला कुछ हफ्तों में हो जाता है, लेकिन आम जनता की झोली में तारीख ही आती है। अदालतों की मौखिक बहस और कार्यवाही का पूरा रिकॉर्ड रखा जाए या फिर संसद की तरह कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो तो न्यायिक सिस्टम जवाबदेह बनेगा। थिंक टैंक सीएएससी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि अदालतों की सड़ांध को दूर करने के लिए सीधे प्रसारण की व्यवस्था प्रभावी हो सकती है। लॉकडाउन की मजबूरी में अदालतों में डिजिटल माध्यम से सुनवाई जरूर शुरू हो गई, लेकिन सीधे प्रसारण की औपचारिक व्यवस्था अभी तक नोटिफाई नहीं हुई। 4. मुकदमों की मनमाफिक लिस्टिंग और मास्टर ऑफ रोस्टर जैसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। कुछ मुकदमों पर ताबड़तोड़ सुनवाई और फैसला हो जाता है, जबकि शांति भूषण के हलफनामे या गोविंदाचार्य की सीधे प्रसारण की याचिका पर सुनवाई फाइलों के तले दबी रहती है। मामलों की लिस्टिंग, बेंच के गठन, सुनवाई के क्रम और रोस्टर आदि के सही नियमन और क्रियान्वयन के लिए सुप्रीम कोर्ट नियमों में संशोधन करके समुचित व्यवस्था बने तो फिर मनमर्जी और भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। 5. प्रशांत भूषण मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैरा 67 में आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताया गया है। ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके लोकतंत्र को खतरे की बात कही थी। न्यायिक व्यवस्था में माफिया तंत्र के दबाव का हल्ला मचाकर तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई ने छुट्टी के दिन सुनवाई करके, जस्टिस पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा। अपराधी, भ्रष्ट अफसर और नाकाम सरकारों पर न्याय का चाबुक चलाने के बाद अब न्याय की देवी खुद का घर ठीक करें तो जजों का इकबाल ज्यादा बढ़ेगा। अवमानना के नाम पर विरोध को कुचलने से, जजों को तात्कालिक राहत भले ही मिल जाए, लेकिन न्यायपालिका का इकबाल बुलंद करने के लिए बुनियादी न्यायिक सुधारों की पूरे देश को जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील https://ift.tt/3gFH7xy Dainik Bhaskar व्यक्ति की बजाय न्यायिक व्यवस्था में सुधारों की पूरे देश को जरूरत

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुशांत सिंह राजपूत के मामले की सीबीआई, ईडी और अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा मुस्तैदी से जांच हो रही है।...
- August 29, 2020
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुशांत सिंह राजपूत के मामले की सीबीआई, ईडी और अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा मुस्तैदी से जांच हो रही है। फिल्मी सितारों से जुड़ा निजी मामला अब मीडिया ट्रायल की वजह से देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। चार साल पहले अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी। 60 पेज के सुसाइड नोट के हर पेज में दस्तखत करके उन्होंने अफसरों, वकीलों, जजों और राजनेताओं के भ्रष्ट तंत्र का बड़ा खुलासा किया था। उस मामले में राज्यपाल की अनुशंसा के बावजूद मुख्यमंत्री की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ न तो जांच हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई। सुशांत की तर्ज पर कलिखो और बाद में उनके बेटे की हत्या/आत्महत्या के कारणों की सही जांच होती तो आज न्यायपालिका की साख पर इतने पैने सवाल नहीं उठते? अवमानना के ये मामले किसी एक वकील या जज के बीच माफी या सजा से खत्म नहीं हो सकते। पिछले पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक व्यवस्था में सुधार के पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर महत्वपूर्ण आदेश पारित किए, लेकिन उन पर अमल नहीं होने से अनेक बवंडर हो रहे हैं। इन मामलों के बहाने अदालती व्यवस्था का मंथन हो तो न्यायिक सुधारों के अमृत से पूरा देश लाभान्वित हो सकता है। 1. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की भर्ती में मनमानी से भाई-भतीजावाद पनपता है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार का बड़ा कारण है। इसे ठीक करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का कानून बनाया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने पांच साल पहले खारिज कर दिया। न्यायिक व्यवस्था की सड़ांध को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने उस फैसले में ग्लास्त्नोव (पारदर्शिता) और पेरोस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) को लागू करने की बात कही थी। पांच साल बीत गए, लेकिन मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर यानी एमओपी में माध्यम की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। 2. संसदीय समिति ने 1964 में निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बात कही थी। उसके 50 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के अनेक चीफ जस्टिस ने ऊंची अदालतों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को स्वीकार किया। संविधान के तहत जजों को सिर्फ महाभियोग की प्रक्रिया से ही हटा सकते हैं। 1991 में संविधान पीठ ने एक अजब फैसला दिया था, जिसके बाद चीफ जस्टिस की इजाजत के बगैर भ्रष्टाचार के मामलों में जजों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती। पिछले 70 सालों में भ्रष्टाचार के अनेक आरोप सिद्ध होने के बावजूद, एक भी जज महाभियोग के तहत नहीं हटाया गया और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई। इस पूरी बहस में यह समझना जरूरी है कि 10% या 20% जज भले ही भ्रष्ट हों, लेकिन बकाया 80% जज अभी भी मेहनती और ईमानदार हैं। अच्छे लोगों का सिस्टम पर भरोसा बना रहे, इसके लिए दागी जजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई जरूरी है। 3. तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमों की वजह से समाज त्रस्त, अर्थव्यवस्था ध्वस्त है। सीनियर एडवोकेट्स की वजह से वीआईपी मामलों का फैसला कुछ हफ्तों में हो जाता है, लेकिन आम जनता की झोली में तारीख ही आती है। अदालतों की मौखिक बहस और कार्यवाही का पूरा रिकॉर्ड रखा जाए या फिर संसद की तरह कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो तो न्यायिक सिस्टम जवाबदेह बनेगा। थिंक टैंक सीएएससी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि अदालतों की सड़ांध को दूर करने के लिए सीधे प्रसारण की व्यवस्था प्रभावी हो सकती है। लॉकडाउन की मजबूरी में अदालतों में डिजिटल माध्यम से सुनवाई जरूर शुरू हो गई, लेकिन सीधे प्रसारण की औपचारिक व्यवस्था अभी तक नोटिफाई नहीं हुई। 4. मुकदमों की मनमाफिक लिस्टिंग और मास्टर ऑफ रोस्टर जैसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। कुछ मुकदमों पर ताबड़तोड़ सुनवाई और फैसला हो जाता है, जबकि शांति भूषण के हलफनामे या गोविंदाचार्य की सीधे प्रसारण की याचिका पर सुनवाई फाइलों के तले दबी रहती है। मामलों की लिस्टिंग, बेंच के गठन, सुनवाई के क्रम और रोस्टर आदि के सही नियमन और क्रियान्वयन के लिए सुप्रीम कोर्ट नियमों में संशोधन करके समुचित व्यवस्था बने तो फिर मनमर्जी और भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। 5. प्रशांत भूषण मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैरा 67 में आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताया गया है। ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके लोकतंत्र को खतरे की बात कही थी। न्यायिक व्यवस्था में माफिया तंत्र के दबाव का हल्ला मचाकर तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई ने छुट्टी के दिन सुनवाई करके, जस्टिस पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा। अपराधी, भ्रष्ट अफसर और नाकाम सरकारों पर न्याय का चाबुक चलाने के बाद अब न्याय की देवी खुद का घर ठीक करें तो जजों का इकबाल ज्यादा बढ़ेगा। अवमानना के नाम पर विरोध को कुचलने से, जजों को तात्कालिक राहत भले ही मिल जाए, लेकिन न्यायपालिका का इकबाल बुलंद करने के लिए बुनियादी न्यायिक सुधारों की पूरे देश को जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील https://ift.tt/3gFH7xy Dainik Bhaskar व्यक्ति की बजाय न्यायिक व्यवस्था में सुधारों की पूरे देश को जरूरत 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुशांत सिंह राजपूत के मामले की सीबीआई, ईडी और अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा मुस्तैदी से जांच हो रही है। फिल्मी सितारों से जुड़ा निजी मामला अब मीडिया ट्रायल की वजह से देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया।

चार साल पहले अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी। 60 पेज के सुसाइड नोट के हर पेज में दस्तखत करके उन्होंने अफसरों, वकीलों, जजों और राजनेताओं के भ्रष्ट तंत्र का बड़ा खुलासा किया था। उस मामले में राज्यपाल की अनुशंसा के बावजूद मुख्यमंत्री की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ न तो जांच हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई।

सुशांत की तर्ज पर कलिखो और बाद में उनके बेटे की हत्या/आत्महत्या के कारणों की सही जांच होती तो आज न्यायपालिका की साख पर इतने पैने सवाल नहीं उठते? अवमानना के ये मामले किसी एक वकील या जज के बीच माफी या सजा से खत्म नहीं हो सकते।

पिछले पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक व्यवस्था में सुधार के पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर महत्वपूर्ण आदेश पारित किए, लेकिन उन पर अमल नहीं होने से अनेक बवंडर हो रहे हैं। इन मामलों के बहाने अदालती व्यवस्था का मंथन हो तो न्यायिक सुधारों के अमृत से पूरा देश लाभान्वित हो सकता है।

1. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की भर्ती में मनमानी से भाई-भतीजावाद पनपता है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार का बड़ा कारण है। इसे ठीक करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का कानून बनाया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने पांच साल पहले खारिज कर दिया।

न्यायिक व्यवस्था की सड़ांध को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने उस फैसले में ग्लास्त्नोव (पारदर्शिता) और पेरोस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) को लागू करने की बात कही थी। पांच साल बीत गए, लेकिन मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर यानी एमओपी में माध्यम की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ।

2. संसदीय समिति ने 1964 में निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बात कही थी। उसके 50 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के अनेक चीफ जस्टिस ने ऊंची अदालतों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को स्वीकार किया। संविधान के तहत जजों को सिर्फ महाभियोग की प्रक्रिया से ही हटा सकते हैं। 1991 में संविधान पीठ ने एक अजब फैसला दिया था, जिसके बाद चीफ जस्टिस की इजाजत के बगैर भ्रष्टाचार के मामलों में जजों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती।

पिछले 70 सालों में भ्रष्टाचार के अनेक आरोप सिद्ध होने के बावजूद, एक भी जज महाभियोग के तहत नहीं हटाया गया और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई। इस पूरी बहस में यह समझना जरूरी है कि 10% या 20% जज भले ही भ्रष्ट हों, लेकिन बकाया 80% जज अभी भी मेहनती और ईमानदार हैं। अच्छे लोगों का सिस्टम पर भरोसा बना रहे, इसके लिए दागी जजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई जरूरी है।

3. तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमों की वजह से समाज त्रस्त, अर्थव्यवस्था ध्वस्त है। सीनियर एडवोकेट्स की वजह से वीआईपी मामलों का फैसला कुछ हफ्तों में हो जाता है, लेकिन आम जनता की झोली में तारीख ही आती है। अदालतों की मौखिक बहस और कार्यवाही का पूरा रिकॉर्ड रखा जाए या फिर संसद की तरह कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो तो न्यायिक सिस्टम जवाबदेह बनेगा।

थिंक टैंक सीएएससी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि अदालतों की सड़ांध को दूर करने के लिए सीधे प्रसारण की व्यवस्था प्रभावी हो सकती है। लॉकडाउन की मजबूरी में अदालतों में डिजिटल माध्यम से सुनवाई जरूर शुरू हो गई, लेकिन सीधे प्रसारण की औपचारिक व्यवस्था अभी तक नोटिफाई नहीं हुई।

4. मुकदमों की मनमाफिक लिस्टिंग और मास्टर ऑफ रोस्टर जैसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। कुछ मुकदमों पर ताबड़तोड़ सुनवाई और फैसला हो जाता है, जबकि शांति भूषण के हलफनामे या गोविंदाचार्य की सीधे प्रसारण की याचिका पर सुनवाई फाइलों के तले दबी रहती है।

मामलों की लिस्टिंग, बेंच के गठन, सुनवाई के क्रम और रोस्टर आदि के सही नियमन और क्रियान्वयन के लिए सुप्रीम कोर्ट नियमों में संशोधन करके समुचित व्यवस्था बने तो फिर मनमर्जी और भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी।

5. प्रशांत भूषण मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैरा 67 में आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताया गया है। ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके लोकतंत्र को खतरे की बात कही थी। न्यायिक व्यवस्था में माफिया तंत्र के दबाव का हल्ला मचाकर तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई ने छुट्टी के दिन सुनवाई करके, जस्टिस पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा। अपराधी, भ्रष्ट अफसर और नाकाम सरकारों पर न्याय का चाबुक चलाने के बाद अब न्याय की देवी खुद का घर ठीक करें तो जजों का इकबाल ज्यादा बढ़ेगा।

अवमानना के नाम पर विरोध को कुचलने से, जजों को तात्कालिक राहत भले ही मिल जाए, लेकिन न्यायपालिका का इकबाल बुलंद करने के लिए बुनियादी न्यायिक सुधारों की पूरे देश को जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील

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