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स्कॉटलैंड से खबर आई है। वहां औरतें को पीरियड से जुड़े उत्पाद नहीं खरीदने होंगे। स्कॉटिश संसद ने माना कि कोरोना-काल में पीरियड पॉवर्टी बढ़ी है। यानी पगार कम होने का असर सिर्फ रोटी पर नहीं पड़ा, बल्कि पहली मार औरतों की गैर-जरूरतों पर पड़ी। यानी सैनेटरी पैड। आखिर लिपस्टिक की तरह ये भी गैरजरूरी खर्च है। लिहाजा कटौती हुई और औरतों को घर के पुराने कपड़ों का रास्ता दिखा दिया गया। शादी के बाद दुल्हन के अरमानों की तरह मुसी हुई चादर की कतरनें काटकर बंटवारा हुआ। ये वाला मां लेगी। ये वाला हिस्सा बेटी का। धोने के बाद घर के किसी गीले-सीले कोने में सुखाने का इंतजाम हुआ। और सूखने के बाद अगले पीरियड तक रखने के लिए कोने खोजे गए। पुराने समय में मुसीबत के वक्त राजाओं के छिपने के बंदोबस्त भी क्या ही इतने पुख्ता होते होंगे, जितनी गुप्त जगहें इन कपड़ों के लिए एक कमरे वाले घरों ने खोज निकालीं। कई जगहों के हाल इससे भी खराब हैं। वहां तन ढंकने के कपड़े पूरे नहीं पड़ते तो खून सोखने के कहां से आएं! वहां के समाज ने इसका भी तोड़ खोज निकाला। औरतों को रेत दे दी या वो भी नहीं मिला तो नारियल की जूट। जिन दिनों में महीन से महीन कपड़ा जांघों में जख्म ला देता है, उन दिनों के लिए नारियल की जूट से बढ़िया क्या सजा होगी। शिकायत करें तो फट से सुनें- अभी से रो रही हो। जब बच्चा पैदा करोगी तो क्या हाल होगा। नतीजा! दर्द से ऐंठती औरतें संक्रमण से मरने लगीं। वॉटर एड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल दुनियाभर में 8 लाख के करीब औरतें इसी दौरान होने वाले संक्रमण से मरती हैं। इस दौरान या फिर बच्चे के जन्म के बाद साफ-सफाई की कमी औरतों की मौत का पांचवां सबसे बड़ा कारण बन चुकी है। दसरा (Dasra) की एक रिपोर्ट बताती है कि कैसे हर साल 23 मिलियन लड़कियां पीरियड शुरू होते ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। क्योंकि, स्कूलों में टॉयलेट की व्यवस्था नहीं। पीरियड के दौरान लड़कियों से छेड़छाड़ तो जैसे चना-मुर्रा है। स्कूल तो स्कूल, अंग्रेजीदां कॉर्पोरेट भी इससे बचे हुए नहीं। जहां कोई औरत जरा चिड़चिड़ाई कि फौरन ऐलान हो जाता है- लगता है, फलां का टाइम आ गया! दिलदार-दिल्ली के हाल और भी खराब हैं। वहां मेट्रो की रेड लाइन के नाम पर लड़के ठहाके मारते और लड़कियों को घूरते कहीं भी दिख जाएंगे। मेट्रो में दफ्तर या कॉलेज से थकी, और तिसपर पीरियड के दर्द से दोहरी-तिहरी होती लड़कियों के चेहरे अलग से दिख जाएंगे। उन चेहरों को गौर से देखते और कानों में ईयरफोन ठूंसे चेहरे भी दिखते हैं, जो इत्मीनान से सीटों में धंसे होते हैं। औरतों को लेडीज सीट तो मिली हुई है। अब क्या अपना हक भी दे दें, का भाव बहुतेरे चेहरों का स्थायी भाव हो गया है। पड़ोस का मुल्क नेपाल इस मामले में हमसे भी कई कदम आगे हैं। वहां चौपदी प्रथा के तहत पीरियड्स आते ही बच्ची हो या पचास-साला- सबको गांव से बाहर एक फूस-मिट्टी की बनी झोपड़ी में रहना होता है। कई गांवों में अलग घर नहीं होते तो उन्हें जानवरों के बीच रहना होता है। धोने-सुखाने का कोई बंदोबस्त नहीं। पास की नदी भी किलोमीटरों दूर। ऐसे में सालाना कई बच्चियां दम तोड़ देती हैं। जो संक्रमण से नहीं मरतीं, वे किसी और कारण से मरती हैं। जैसे सांप काटने या फिर ठंड से। इससे भी कोई बच जाए तो बलात्कार तो है ही। गांव से बाहर सुनसान में इन अपवित्र औरतों का बलात्कार कर अघाए मर्द आराम से अपनी कुटिया लौट जाते हैं। इसके बाद औरत महीना-दर-महीना या तो रेप झेलती है या बच सकी तो डर से मरती है। अमेरिकी खोजकर्ता एलन मस्क मंगल और चांद पर इंसानों को बसाने की तकनीक खोज रहे हैं। इधर मांएं अपनी बच्चियों को पीरियड का राज खुसपुसाते हुए बता रही हैं। पापा से मत बताना। भैया से मत कहना। पड़ोसी लड़कों के साथ उछल-कूद बंद। खून की वो पहली बूंद लड़कियों को उतना दर्द नहीं देती, जितना मां या दूसरी औरतों की ये घुट्टी। खुद को आधुनिक बताता एक दूसरा तबका भी है, जो विज्ञापन में सैनेटरी पैड हिलाते हुए हरदम खिला हुआ रहने के नुस्खे देता है। यानी पैड लगाने भर से दर्द छूमंतर हो जाएगा। नतीजा ये कि सामर्थ्यवान मर्द नमक-तेल की तरह सैनेटरी पैड भी स्टॉक कर देता है। साथ में ये भाव रहता है कि देखो, अब दर्द का रोना मत रोना। बॉस, पीरियड एक हार्मोनल बदलाव है, जिसमें खून के साथ-साथ थक्के भी निकलते हैं। पैड खून रोकता है, दर्द नहीं. कुछ सालों पहले यौन-बीमारियों से बचाने के लिए मुफ्त कंडोम बांटना शुरू किया गया। आज भी आंगनबाड़ी कार्यकताएं कंडोम वितरण करती हैं। साथ में एक पिटाया-पिटाया तर्क पुतले की तरह दोहराती चलती हैं कि इससे औरतों का ही भला होगा। अनचाहा बच्चा पेट में नहीं आएगा। या फिर मर्द की मुंहमारी का अंजाम औरतें नहीं भुगतेंगी। लेकिन अगर पुरुषों की यौन जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम दिया जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं! स्कॉटलैंड ने शुरुआत की, अब हमारी बारी है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें Condoms can be distributed to meet the needs of men without fear, so why not a sanitary pad for women https://ift.tt/3o6bfX0 Dainik Bhaskar पुरुषों की जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम बांटा जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं

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स्कॉटलैंड से खबर आई है। वहां औरतें को पीरियड से जुड़े उत्पाद नहीं खरीदने होंगे। स्कॉटिश संसद ने माना कि कोरोना-काल में पीरियड पॉवर्टी बढ़ी है। यानी पगार कम होने का असर सिर्फ रोटी पर नहीं पड़ा, बल्कि पहली मार औरतों की गैर-जरूरतों पर पड़ी। यानी सैनेटरी पैड। आखिर लिपस्टिक की तरह ये भी गैरजरूरी खर्च है। लिहाजा कटौती हुई और औरतों को घर के पुराने कपड़ों का रास्ता दिखा दिया गया।

शादी के बाद दुल्हन के अरमानों की तरह मुसी हुई चादर की कतरनें काटकर बंटवारा हुआ। ये वाला मां लेगी। ये वाला हिस्सा बेटी का। धोने के बाद घर के किसी गीले-सीले कोने में सुखाने का इंतजाम हुआ। और सूखने के बाद अगले पीरियड तक रखने के लिए कोने खोजे गए। पुराने समय में मुसीबत के वक्त राजाओं के छिपने के बंदोबस्त भी क्या ही इतने पुख्ता होते होंगे, जितनी गुप्त जगहें इन कपड़ों के लिए एक कमरे वाले घरों ने खोज निकालीं।

कई जगहों के हाल इससे भी खराब हैं। वहां तन ढंकने के कपड़े पूरे नहीं पड़ते तो खून सोखने के कहां से आएं! वहां के समाज ने इसका भी तोड़ खोज निकाला। औरतों को रेत दे दी या वो भी नहीं मिला तो नारियल की जूट। जिन दिनों में महीन से महीन कपड़ा जांघों में जख्म ला देता है, उन दिनों के लिए नारियल की जूट से बढ़िया क्या सजा होगी। शिकायत करें तो फट से सुनें- अभी से रो रही हो। जब बच्चा पैदा करोगी तो क्या हाल होगा। नतीजा! दर्द से ऐंठती औरतें संक्रमण से मरने लगीं।

वॉटर एड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल दुनियाभर में 8 लाख के करीब औरतें इसी दौरान होने वाले संक्रमण से मरती हैं। इस दौरान या फिर बच्चे के जन्म के बाद साफ-सफाई की कमी औरतों की मौत का पांचवां सबसे बड़ा कारण बन चुकी है। दसरा (Dasra) की एक रिपोर्ट बताती है कि कैसे हर साल 23 मिलियन लड़कियां पीरियड शुरू होते ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। क्योंकि, स्कूलों में टॉयलेट की व्यवस्था नहीं। पीरियड के दौरान लड़कियों से छेड़छाड़ तो जैसे चना-मुर्रा है।

स्कूल तो स्कूल, अंग्रेजीदां कॉर्पोरेट भी इससे बचे हुए नहीं। जहां कोई औरत जरा चिड़चिड़ाई कि फौरन ऐलान हो जाता है- लगता है, फलां का टाइम आ गया! दिलदार-दिल्ली के हाल और भी खराब हैं। वहां मेट्रो की रेड लाइन के नाम पर लड़के ठहाके मारते और लड़कियों को घूरते कहीं भी दिख जाएंगे। मेट्रो में दफ्तर या कॉलेज से थकी, और तिसपर पीरियड के दर्द से दोहरी-तिहरी होती लड़कियों के चेहरे अलग से दिख जाएंगे। उन चेहरों को गौर से देखते और कानों में ईयरफोन ठूंसे चेहरे भी दिखते हैं, जो इत्मीनान से सीटों में धंसे होते हैं। औरतों को लेडीज सीट तो मिली हुई है। अब क्या अपना हक भी दे दें, का भाव बहुतेरे चेहरों का स्थायी भाव हो गया है।

पड़ोस का मुल्क नेपाल इस मामले में हमसे भी कई कदम आगे हैं। वहां चौपदी प्रथा के तहत पीरियड्स आते ही बच्ची हो या पचास-साला- सबको गांव से बाहर एक फूस-मिट्टी की बनी झोपड़ी में रहना होता है। कई गांवों में अलग घर नहीं होते तो उन्हें जानवरों के बीच रहना होता है। धोने-सुखाने का कोई बंदोबस्त नहीं। पास की नदी भी किलोमीटरों दूर। ऐसे में सालाना कई बच्चियां दम तोड़ देती हैं।

जो संक्रमण से नहीं मरतीं, वे किसी और कारण से मरती हैं। जैसे सांप काटने या फिर ठंड से। इससे भी कोई बच जाए तो बलात्कार तो है ही। गांव से बाहर सुनसान में इन अपवित्र औरतों का बलात्कार कर अघाए मर्द आराम से अपनी कुटिया लौट जाते हैं। इसके बाद औरत महीना-दर-महीना या तो रेप झेलती है या बच सकी तो डर से मरती है।

अमेरिकी खोजकर्ता एलन मस्क मंगल और चांद पर इंसानों को बसाने की तकनीक खोज रहे हैं। इधर मांएं अपनी बच्चियों को पीरियड का राज खुसपुसाते हुए बता रही हैं। पापा से मत बताना। भैया से मत कहना। पड़ोसी लड़कों के साथ उछल-कूद बंद। खून की वो पहली बूंद लड़कियों को उतना दर्द नहीं देती, जितना मां या दूसरी औरतों की ये घुट्टी।

खुद को आधुनिक बताता एक दूसरा तबका भी है, जो विज्ञापन में सैनेटरी पैड हिलाते हुए हरदम खिला हुआ रहने के नुस्खे देता है। यानी पैड लगाने भर से दर्द छूमंतर हो जाएगा। नतीजा ये कि सामर्थ्यवान मर्द नमक-तेल की तरह सैनेटरी पैड भी स्टॉक कर देता है। साथ में ये भाव रहता है कि देखो, अब दर्द का रोना मत रोना। बॉस, पीरियड एक हार्मोनल बदलाव है, जिसमें खून के साथ-साथ थक्के भी निकलते हैं। पैड खून रोकता है, दर्द नहीं.

कुछ सालों पहले यौन-बीमारियों से बचाने के लिए मुफ्त कंडोम बांटना शुरू किया गया। आज भी आंगनबाड़ी कार्यकताएं कंडोम वितरण करती हैं। साथ में एक पिटाया-पिटाया तर्क पुतले की तरह दोहराती चलती हैं कि इससे औरतों का ही भला होगा। अनचाहा बच्चा पेट में नहीं आएगा। या फिर मर्द की मुंहमारी का अंजाम औरतें नहीं भुगतेंगी। लेकिन अगर पुरुषों की यौन जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम दिया जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं! स्कॉटलैंड ने शुरुआत की, अब हमारी बारी है।



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स्कॉटलैंड से खबर आई है। वहां औरतें को पीरियड से जुड़े उत्पाद नहीं खरीदने होंगे। स्कॉटिश संसद ने माना कि कोरोना-काल में पीरियड पॉवर्टी बढ़ी है। यानी पगार कम होने का असर सिर्फ रोटी पर नहीं पड़ा, बल्कि पहली मार औरतों की गैर-जरूरतों पर पड़ी। यानी सैनेटरी पैड। आखिर लिपस्टिक की तरह ये भी गैरजरूरी खर्च है। लिहाजा कटौती हुई और औरतों को घर के पुराने कपड़ों का रास्ता दिखा दिया गया। शादी के बाद दुल्हन के अरमानों की तरह मुसी हुई चादर की कतरनें काटकर बंटवारा हुआ। ये वाला मां लेगी। ये वाला हिस्सा बेटी का। धोने के बाद घर के किसी गीले-सीले कोने में सुखाने का इंतजाम हुआ। और सूखने के बाद अगले पीरियड तक रखने के लिए कोने खोजे गए। पुराने समय में मुसीबत के वक्त राजाओं के छिपने के बंदोबस्त भी क्या ही इतने पुख्ता होते होंगे, जितनी गुप्त जगहें इन कपड़ों के लिए एक कमरे वाले घरों ने खोज निकालीं। कई जगहों के हाल इससे भी खराब हैं। वहां तन ढंकने के कपड़े पूरे नहीं पड़ते तो खून सोखने के कहां से आएं! वहां के समाज ने इसका भी तोड़ खोज निकाला। औरतों को रेत दे दी या वो भी नहीं मिला तो नारियल की जूट। जिन दिनों में महीन से महीन कपड़ा जांघों में जख्म ला देता है, उन दिनों के लिए नारियल की जूट से बढ़िया क्या सजा होगी। शिकायत करें तो फट से सुनें- अभी से रो रही हो। जब बच्चा पैदा करोगी तो क्या हाल होगा। नतीजा! दर्द से ऐंठती औरतें संक्रमण से मरने लगीं। वॉटर एड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल दुनियाभर में 8 लाख के करीब औरतें इसी दौरान होने वाले संक्रमण से मरती हैं। इस दौरान या फिर बच्चे के जन्म के बाद साफ-सफाई की कमी औरतों की मौत का पांचवां सबसे बड़ा कारण बन चुकी है। दसरा (Dasra) की एक रिपोर्ट बताती है कि कैसे हर साल 23 मिलियन लड़कियां पीरियड शुरू होते ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। क्योंकि, स्कूलों में टॉयलेट की व्यवस्था नहीं। पीरियड के दौरान लड़कियों से छेड़छाड़ तो जैसे चना-मुर्रा है। स्कूल तो स्कूल, अंग्रेजीदां कॉर्पोरेट भी इससे बचे हुए नहीं। जहां कोई औरत जरा चिड़चिड़ाई कि फौरन ऐलान हो जाता है- लगता है, फलां का टाइम आ गया! दिलदार-दिल्ली के हाल और भी खराब हैं। वहां मेट्रो की रेड लाइन के नाम पर लड़के ठहाके मारते और लड़कियों को घूरते कहीं भी दिख जाएंगे। मेट्रो में दफ्तर या कॉलेज से थकी, और तिसपर पीरियड के दर्द से दोहरी-तिहरी होती लड़कियों के चेहरे अलग से दिख जाएंगे। उन चेहरों को गौर से देखते और कानों में ईयरफोन ठूंसे चेहरे भी दिखते हैं, जो इत्मीनान से सीटों में धंसे होते हैं। औरतों को लेडीज सीट तो मिली हुई है। अब क्या अपना हक भी दे दें, का भाव बहुतेरे चेहरों का स्थायी भाव हो गया है। पड़ोस का मुल्क नेपाल इस मामले में हमसे भी कई कदम आगे हैं। वहां चौपदी प्रथा के तहत पीरियड्स आते ही बच्ची हो या पचास-साला- सबको गांव से बाहर एक फूस-मिट्टी की बनी झोपड़ी में रहना होता है। कई गांवों में अलग घर नहीं होते तो उन्हें जानवरों के बीच रहना होता है। धोने-सुखाने का कोई बंदोबस्त नहीं। पास की नदी भी किलोमीटरों दूर। ऐसे में सालाना कई बच्चियां दम तोड़ देती हैं। जो संक्रमण से नहीं मरतीं, वे किसी और कारण से मरती हैं। जैसे सांप काटने या फिर ठंड से। इससे भी कोई बच जाए तो बलात्कार तो है ही। गांव से बाहर सुनसान में इन अपवित्र औरतों का बलात्कार कर अघाए मर्द आराम से अपनी कुटिया लौट जाते हैं। इसके बाद औरत महीना-दर-महीना या तो रेप झेलती है या बच सकी तो डर से मरती है। अमेरिकी खोजकर्ता एलन मस्क मंगल और चांद पर इंसानों को बसाने की तकनीक खोज रहे हैं। इधर मांएं अपनी बच्चियों को पीरियड का राज खुसपुसाते हुए बता रही हैं। पापा से मत बताना। भैया से मत कहना। पड़ोसी लड़कों के साथ उछल-कूद बंद। खून की वो पहली बूंद लड़कियों को उतना दर्द नहीं देती, जितना मां या दूसरी औरतों की ये घुट्टी। खुद को आधुनिक बताता एक दूसरा तबका भी है, जो विज्ञापन में सैनेटरी पैड हिलाते हुए हरदम खिला हुआ रहने के नुस्खे देता है। यानी पैड लगाने भर से दर्द छूमंतर हो जाएगा। नतीजा ये कि सामर्थ्यवान मर्द नमक-तेल की तरह सैनेटरी पैड भी स्टॉक कर देता है। साथ में ये भाव रहता है कि देखो, अब दर्द का रोना मत रोना। बॉस, पीरियड एक हार्मोनल बदलाव है, जिसमें खून के साथ-साथ थक्के भी निकलते हैं। पैड खून रोकता है, दर्द नहीं. कुछ सालों पहले यौन-बीमारियों से बचाने के लिए मुफ्त कंडोम बांटना शुरू किया गया। आज भी आंगनबाड़ी कार्यकताएं कंडोम वितरण करती हैं। साथ में एक पिटाया-पिटाया तर्क पुतले की तरह दोहराती चलती हैं कि इससे औरतों का ही भला होगा। अनचाहा बच्चा पेट में नहीं आएगा। या फिर मर्द की मुंहमारी का अंजाम औरतें नहीं भुगतेंगी। लेकिन अगर पुरुषों की यौन जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम दिया जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं! स्कॉटलैंड ने शुरुआत की, अब हमारी बारी है। आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें Condoms can be distributed to meet the needs of men without fear, so why not a sanitary pad for women https://ift.tt/3o6bfX0 Dainik Bhaskar पुरुषों की जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम बांटा जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं 

स्कॉटलैंड से खबर आई है। वहां औरतें को पीरियड से जुड़े उत्पाद नहीं खरीदने होंगे। स्कॉटिश संसद ने माना कि कोरोना-काल में पीरियड पॉवर्टी बढ़ी है। यानी पगार कम होने का असर सिर्फ रोटी पर नहीं पड़ा, बल्कि पहली मार औरतों की गैर-जरूरतों पर पड़ी। यानी सैनेटरी पैड। आखिर लिपस्टिक की तरह ये भी गैरजरूरी खर्च है। लिहाजा कटौती हुई और औरतों को घर के पुराने कपड़ों का रास्ता दिखा दिया गया।

शादी के बाद दुल्हन के अरमानों की तरह मुसी हुई चादर की कतरनें काटकर बंटवारा हुआ। ये वाला मां लेगी। ये वाला हिस्सा बेटी का। धोने के बाद घर के किसी गीले-सीले कोने में सुखाने का इंतजाम हुआ। और सूखने के बाद अगले पीरियड तक रखने के लिए कोने खोजे गए। पुराने समय में मुसीबत के वक्त राजाओं के छिपने के बंदोबस्त भी क्या ही इतने पुख्ता होते होंगे, जितनी गुप्त जगहें इन कपड़ों के लिए एक कमरे वाले घरों ने खोज निकालीं।

कई जगहों के हाल इससे भी खराब हैं। वहां तन ढंकने के कपड़े पूरे नहीं पड़ते तो खून सोखने के कहां से आएं! वहां के समाज ने इसका भी तोड़ खोज निकाला। औरतों को रेत दे दी या वो भी नहीं मिला तो नारियल की जूट। जिन दिनों में महीन से महीन कपड़ा जांघों में जख्म ला देता है, उन दिनों के लिए नारियल की जूट से बढ़िया क्या सजा होगी। शिकायत करें तो फट से सुनें- अभी से रो रही हो। जब बच्चा पैदा करोगी तो क्या हाल होगा। नतीजा! दर्द से ऐंठती औरतें संक्रमण से मरने लगीं।

वॉटर एड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल दुनियाभर में 8 लाख के करीब औरतें इसी दौरान होने वाले संक्रमण से मरती हैं। इस दौरान या फिर बच्चे के जन्म के बाद साफ-सफाई की कमी औरतों की मौत का पांचवां सबसे बड़ा कारण बन चुकी है। दसरा (Dasra) की एक रिपोर्ट बताती है कि कैसे हर साल 23 मिलियन लड़कियां पीरियड शुरू होते ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। क्योंकि, स्कूलों में टॉयलेट की व्यवस्था नहीं। पीरियड के दौरान लड़कियों से छेड़छाड़ तो जैसे चना-मुर्रा है।

स्कूल तो स्कूल, अंग्रेजीदां कॉर्पोरेट भी इससे बचे हुए नहीं। जहां कोई औरत जरा चिड़चिड़ाई कि फौरन ऐलान हो जाता है- लगता है, फलां का टाइम आ गया! दिलदार-दिल्ली के हाल और भी खराब हैं। वहां मेट्रो की रेड लाइन के नाम पर लड़के ठहाके मारते और लड़कियों को घूरते कहीं भी दिख जाएंगे। मेट्रो में दफ्तर या कॉलेज से थकी, और तिसपर पीरियड के दर्द से दोहरी-तिहरी होती लड़कियों के चेहरे अलग से दिख जाएंगे। उन चेहरों को गौर से देखते और कानों में ईयरफोन ठूंसे चेहरे भी दिखते हैं, जो इत्मीनान से सीटों में धंसे होते हैं। औरतों को लेडीज सीट तो मिली हुई है। अब क्या अपना हक भी दे दें, का भाव बहुतेरे चेहरों का स्थायी भाव हो गया है।

पड़ोस का मुल्क नेपाल इस मामले में हमसे भी कई कदम आगे हैं। वहां चौपदी प्रथा के तहत पीरियड्स आते ही बच्ची हो या पचास-साला- सबको गांव से बाहर एक फूस-मिट्टी की बनी झोपड़ी में रहना होता है। कई गांवों में अलग घर नहीं होते तो उन्हें जानवरों के बीच रहना होता है। धोने-सुखाने का कोई बंदोबस्त नहीं। पास की नदी भी किलोमीटरों दूर। ऐसे में सालाना कई बच्चियां दम तोड़ देती हैं।

जो संक्रमण से नहीं मरतीं, वे किसी और कारण से मरती हैं। जैसे सांप काटने या फिर ठंड से। इससे भी कोई बच जाए तो बलात्कार तो है ही। गांव से बाहर सुनसान में इन अपवित्र औरतों का बलात्कार कर अघाए मर्द आराम से अपनी कुटिया लौट जाते हैं। इसके बाद औरत महीना-दर-महीना या तो रेप झेलती है या बच सकी तो डर से मरती है।

अमेरिकी खोजकर्ता एलन मस्क मंगल और चांद पर इंसानों को बसाने की तकनीक खोज रहे हैं। इधर मांएं अपनी बच्चियों को पीरियड का राज खुसपुसाते हुए बता रही हैं। पापा से मत बताना। भैया से मत कहना। पड़ोसी लड़कों के साथ उछल-कूद बंद। खून की वो पहली बूंद लड़कियों को उतना दर्द नहीं देती, जितना मां या दूसरी औरतों की ये घुट्टी।

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https://ift.tt/3o6bfX0 Dainik Bhaskar पुरुषों की जरूरतें बगैर डर पूरी हो सकें, इसके लिए कंडोम बांटा जा सकता है, तो औरतों के लिए सैनेटरी पैड क्यों नहीं Reviewed by Manish Pethev on November 29, 2020 Rating: 5

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