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संकट से भारतीय मानस सबक लेता है? अतीत, कहता है नहीं। इतिहास में एकजुट ‘नियति से मुठभेड़’ और नई इबारत लिखने के चुनिंदा क्षण हैं। कारण है, ‘चलता है मानस’। अर्थशास्त्री कींस ने कहा था, ‘सवाल नए विचारों को विकसित करने का नहीं, पुराने मानस से मुक्ति का है।’ सिंगापुर बदलने वाले ली यूआन क्यू ने दशकों पहले भारत के बारे में दूरदर्शी बातें कही थीं। पूर्व विदेश सचिव जगत मेहता का मानना था कि भारतीय जब अपनी संभावनाओं को नहीं जानते थे, तब ली ने भारत की इस ताकत को पहचाना। 1991 उदारीकरण के बाद नरसिम्हाराव जी ने ली को बुलाया। कुछ ही वर्षों बाद दुनिया के तीन विद्वानों ने ली से चर्चा की। इसपर पुस्तक (ली, क्यान यूः द ग्रैंड मास्टर्स इनसाइट्स ऑन चाइना, द यूनाइटेड स्टेट्स एंड द वर्ल्डः एस.आई.टी. प्रेस, अमेरिका) छपी। हर देशवासी को इस पुस्तक में भारत से जुड़े ली के विचारों को जानना चाहिए। वे कहते हैं ‘भारत अपनी महानता को न पा सकने वाला मुल्क है। इसकी संभावनाएं बंजर हैं, आंशिक भी हासिल नहीं हुई है।’ 1950 में लगा भारत कामयाब होकर दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा कैंब्रिज में विद्यार्थी दिनों से ही पंडित जी का मशहूर भाषण ‘नियति से मुठभेड़’ ली की जुबान पर था। उनकी आत्मकथा में विस्तार से उल्लेख है कि सिंगापुर को गढ़ने के क्रम में सबसे पहले मैं भारत गया। 1950 के दशक में। सीखने। तब मुझे लगा कि भारत संपन्न व कामयाब होकर, दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा। पर भारत से ली का मन टूट गया। देंग (चीन) ने ली से कहा कि चीन को आधुनिकीकरण के लिए 22 वर्ष चाहिए। उन्हें यह सच पता था कि क्रांति से चीनी समाज नहीं बदला है। देंग उस उम्र में अपना मानस बदल चुके थे। उन्होंने दो मुहावरे दिए। कहा, क्या फर्क पड़ता है, बिल्ली काली है या सफेद? सवाल है कि वह चूहा पकड़ सकती है या नहीं? यानी साम्यवाद हो या बाजारवाद, असल सवाल है कि चीन आर्थिक ताकत है या नहीं? दूसरी बात कही, विकास ऐसे करो कि दुनिया को आहट न लगे। आवश्यकता अनुरूप बदलो, आगे बढ़ो, फिर अपनी शर्तों पर चलो, यह चीनी मानस बन गया। ब्रिटेन, अमेरिका को दुनिया की आर्थिक ताकत बनने में जो समय लगा, उससे कम समय में चीन उन्हें चुनौती देने लगा। ली ने चीनी मानस पर टिप्पणी की है ‘चीनी भाषा में चीन’ का अर्थ है, मध्य या केंद्र। यानी सत्ता का केंद्र। इतिहास में आसपास के देश, उसे नजराना चुकाते थे। चीन उसी मानस-मनोवृति से दुनिया पर अपना प्रभाव चाहता है। 1978 में चीन आर्थिक महाशक्ति बनने का संकल्प ले चुका था 1978 में चीन ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने का संकल्प ले चुका था। भारत के कदम किधर थे? नीतियों के स्तर पर, खुद अपने पैरों पर हम कुल्हाड़ी मारते रहे। आर्थिक नीतियों में कर्ज संस्कृति बढ़ी। 1990-91 आते-आते हम दिवालिया होने को थे। तीन सप्ताह का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। विदेशी कर्ज चुकाने के पैसे नहीं थे। कैबिनेट सेक्रेटरी नरेश चंद्रा और देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नायर, तुरंत बने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिले। कहा कि विदेशी ऋण चुकता नहीं हुआ तो दुनिया में भारत की साख और प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी। प्रधानमंत्री सोना गिरवी रखने में हिचक रहे थे। कहा, ‘इतिहास में मैं वह प्रधानमंत्री नहीं होना चाहता, जिसने देश का सोना बेचा।’ नरेश चंद्रा ने कहा, ‘सर, तब आप इतिहास में ऐसे बन जाएंगे, जिन्होंने देश में ‘बैंकरप्सी’ घोषित की।’ प्रधानमंत्री ने कहा ‘गो एहेड’। यह स्थिति रातोंरात बनी? बड़े अर्थशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि 80 के दशक से बाहरी कर्ज लेने की जो मात्रा बढ़ी, उसने भारत को दिवालिया होने के कगार पर पहुंचाया। पूर्व वित्त मंत्री आईजी पटेल ने कहा कि अल्पकालीन राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र सरकारों ने अपना दायित्व छोड़ दिया। रिजर्व बैंक के कई गवर्नरों, (मनमोहन सिंह जी 1982-85, आरएन मल्होत्रा 1985-90 समेत) ने बार-बार तत्कालीन प्रधानमंत्रियों को चेताया। 91 में दुनिया के आर्थिक समीक्षकों ने लिखा कि भारत ‘कठिनाई से अर्जित अपनी आर्थिक आजादी खोने के कगार’ पर था। 1988 तक भारत-चीन की जीडीपी बराबर थी 1988 तक भारत, चीन की जीडीपी बराबर थी। तीन दशक बाद अब चीन की जीडीपी लगभग 4.5 गुना अधिक है। चीन के आक्रामक रवैये के संदर्भ में ली का व्यावहारिक आकलन, भविष्यवाणी साबित हुई है। अब आर्थिक ताकत बनना विकल्पहीन है। हम गांधीवादी, भौतिक प्रगति सब कुछ नहीं मानते। पर भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए। तब गांधीवादी विकास मॉडल अपनाकर, दुनिया के लिए नई लीक बन सकते थे। पर 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना। अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा, आज विकल्प नहीं, देश के भविष्य से जुड़ा है। भारत की बात दुनिया ने कब सुनी? मौर्यों का ताकतवर साम्राज्य रहा। अशोक, पहले प्रतापी हुए, तब बौद्ध। फिर बुद्ध धर्म का संदेश चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत होते मंगोलिया तक पहुंचा। काफी पहले अमेरिका में रहे चीनी राजदूत ह्यू शिह ने कहा था, भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक कतरा भी नहीं बहाया। फिर भी चीन हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा। (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें The past tells that India did not learn from the crisis https://ift.tt/2WQySry Dainik Bhaskar भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए, 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना, अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है

संकट से भारतीय मानस सबक लेता है? अतीत, कहता है नहीं। इतिहास में एकजुट ‘नियति से मुठभेड़’ और नई इबारत लिखने के चुनिंदा क्षण हैं। कारण है, ‘चलता है मानस’। अर्थशास्त्री कींस ने कहा था, ‘सवाल नए विचारों को विकसित करने का नहीं, पुराने मानस से मुक्ति का है।’ सिंगापुर बदलने वाले ली यूआन क्यू ने दशकों पहले भारत के बारे में दूरदर्शी बातें कही थीं।

पूर्व विदेश सचिव जगत मेहता का मानना था कि भारतीय जब अपनी संभावनाओं को नहीं जानते थे, तब ली ने भारत की इस ताकत को पहचाना। 1991 उदारीकरण के बाद नरसिम्हाराव जी ने ली को बुलाया। कुछ ही वर्षों बाद दुनिया के तीन विद्वानों ने ली से चर्चा की। इसपर पुस्तक (ली, क्यान यूः द ग्रैंड मास्टर्स इनसाइट्स ऑन चाइना, द यूनाइटेड स्टेट्स एंड द वर्ल्डः एस.आई.टी. प्रेस, अमेरिका) छपी। हर देशवासी को इस पुस्तक में भारत से जुड़े ली के विचारों को जानना चाहिए। वे कहते हैं ‘भारत अपनी महानता को न पा सकने वाला मुल्क है। इसकी संभावनाएं बंजर हैं, आंशिक भी हासिल नहीं हुई है।’

1950 में लगा भारत कामयाब होकर दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा
कैंब्रिज में विद्यार्थी दिनों से ही पंडित जी का मशहूर भाषण ‘नियति से मुठभेड़’ ली की जुबान पर था। उनकी आत्मकथा में विस्तार से उल्लेख है कि सिंगापुर को गढ़ने के क्रम में सबसे पहले मैं भारत गया। 1950 के दशक में। सीखने। तब मुझे लगा कि भारत संपन्न व कामयाब होकर, दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा। पर भारत से ली का मन टूट गया। देंग (चीन) ने ली से कहा कि चीन को आधुनिकीकरण के लिए 22 वर्ष चाहिए।

उन्हें यह सच पता था कि क्रांति से चीनी समाज नहीं बदला है। देंग उस उम्र में अपना मानस बदल चुके थे। उन्होंने दो मुहावरे दिए। कहा, क्या फर्क पड़ता है, बिल्ली काली है या सफेद? सवाल है कि वह चूहा पकड़ सकती है या नहीं? यानी साम्यवाद हो या बाजारवाद, असल सवाल है कि चीन आर्थिक ताकत है या नहीं? दूसरी बात कही, विकास ऐसे करो कि दुनिया को आहट न लगे।


आवश्यकता अनुरूप बदलो, आगे बढ़ो, फिर अपनी शर्तों पर चलो, यह चीनी मानस बन गया। ब्रिटेन, अमेरिका को दुनिया की आर्थिक ताकत बनने में जो समय लगा, उससे कम समय में चीन उन्हें चुनौती देने लगा। ली ने चीनी मानस पर टिप्पणी की है ‘चीनी भाषा में चीन’ का अर्थ है, मध्य या केंद्र। यानी सत्ता का केंद्र। इतिहास में आसपास के देश, उसे नजराना चुकाते थे। चीन उसी मानस-मनोवृति से दुनिया पर अपना प्रभाव चाहता है।

1978 में चीन आर्थिक महाशक्ति बनने का संकल्प ले चुका था

1978 में चीन ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने का संकल्प ले चुका था। भारत के कदम किधर थे? नीतियों के स्तर पर, खुद अपने पैरों पर हम कुल्हाड़ी मारते रहे। आर्थिक नीतियों में कर्ज संस्कृति बढ़ी। 1990-91 आते-आते हम दिवालिया होने को थे। तीन सप्ताह का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। विदेशी कर्ज चुकाने के पैसे नहीं थे। कैबिनेट सेक्रेटरी नरेश चंद्रा और देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नायर, तुरंत बने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिले। कहा कि विदेशी ऋण चुकता नहीं हुआ तो दुनिया में भारत की साख और प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी।

प्रधानमंत्री सोना गिरवी रखने में हिचक रहे थे। कहा, ‘इतिहास में मैं वह प्रधानमंत्री नहीं होना चाहता, जिसने देश का सोना बेचा।’ नरेश चंद्रा ने कहा, ‘सर, तब आप इतिहास में ऐसे बन जाएंगे, जिन्होंने देश में ‘बैंकरप्सी’ घोषित की।’ प्रधानमंत्री ने कहा ‘गो एहेड’।

यह स्थिति रातोंरात बनी? बड़े अर्थशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि 80 के दशक से बाहरी कर्ज लेने की जो मात्रा बढ़ी, उसने भारत को दिवालिया होने के कगार पर पहुंचाया। पूर्व वित्त मंत्री आईजी पटेल ने कहा कि अल्पकालीन राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र सरकारों ने अपना दायित्व छोड़ दिया। रिजर्व बैंक के कई गवर्नरों, (मनमोहन सिंह जी 1982-85, आरएन मल्होत्रा 1985-90 समेत) ने बार-बार तत्कालीन प्रधानमंत्रियों को चेताया। 91 में दुनिया के आर्थिक समीक्षकों ने लिखा कि भारत ‘कठिनाई से अर्जित अपनी आर्थिक आजादी खोने के कगार’ पर था।

1988 तक भारत-चीन की जीडीपी बराबर थी
1988 तक भारत, चीन की जीडीपी बराबर थी। तीन दशक बाद अब चीन की जीडीपी लगभग 4.5 गुना अधिक है। चीन के आक्रामक रवैये के संदर्भ में ली का व्यावहारिक आकलन, भविष्यवाणी साबित हुई है। अब आर्थिक ताकत बनना विकल्पहीन है। हम गांधीवादी, भौतिक प्रगति सब कुछ नहीं मानते। पर भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए। तब गांधीवादी विकास मॉडल अपनाकर, दुनिया के लिए नई लीक बन सकते थे। पर 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना। अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा, आज विकल्प नहीं, देश के भविष्य से जुड़ा है।

भारत की बात दुनिया ने कब सुनी? मौर्यों का ताकतवर साम्राज्य रहा। अशोक, पहले प्रतापी हुए, तब बौद्ध। फिर बुद्ध धर्म का संदेश चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत होते मंगोलिया तक पहुंचा। काफी पहले अमेरिका में रहे चीनी राजदूत ह्यू शिह ने कहा था, भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक कतरा भी नहीं बहाया। फिर भी चीन हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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संकट से भारतीय मानस सबक लेता है? अतीत, कहता है नहीं। इतिहास में एकजुट ‘नियति से मुठभेड़’ और नई इबारत लिखने के चुनिंदा क्षण हैं। कारण है, ‘चलता है मानस’। अर्थशास्त्री कींस ने कहा था, ‘सवाल नए विचारों को विकसित करने का नहीं, पुराने मानस से मुक्ति का है।’ सिंगापुर बदलने वाले ली यूआन क्यू ने दशकों पहले भारत के बारे में दूरदर्शी बातें कही थीं। पूर्व विदेश सचिव जगत मेहता का मानना था कि भारतीय जब अपनी संभावनाओं को नहीं जानते थे, तब ली ने भारत की इस ताकत को पहचाना। 1991 उदारीकरण के बाद नरसिम्हाराव जी ने ली को बुलाया। कुछ ही वर्षों बाद दुनिया के तीन विद्वानों ने ली से चर्चा की। इसपर पुस्तक (ली, क्यान यूः द ग्रैंड मास्टर्स इनसाइट्स ऑन चाइना, द यूनाइटेड स्टेट्स एंड द वर्ल्डः एस.आई.टी. प्रेस, अमेरिका) छपी। हर देशवासी को इस पुस्तक में भारत से जुड़े ली के विचारों को जानना चाहिए। वे कहते हैं ‘भारत अपनी महानता को न पा सकने वाला मुल्क है। इसकी संभावनाएं बंजर हैं, आंशिक भी हासिल नहीं हुई है।’ 1950 में लगा भारत कामयाब होकर दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा कैंब्रिज में विद्यार्थी दिनों से ही पंडित जी का मशहूर भाषण ‘नियति से मुठभेड़’ ली की जुबान पर था। उनकी आत्मकथा में विस्तार से उल्लेख है कि सिंगापुर को गढ़ने के क्रम में सबसे पहले मैं भारत गया। 1950 के दशक में। सीखने। तब मुझे लगा कि भारत संपन्न व कामयाब होकर, दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा। पर भारत से ली का मन टूट गया। देंग (चीन) ने ली से कहा कि चीन को आधुनिकीकरण के लिए 22 वर्ष चाहिए। उन्हें यह सच पता था कि क्रांति से चीनी समाज नहीं बदला है। देंग उस उम्र में अपना मानस बदल चुके थे। उन्होंने दो मुहावरे दिए। कहा, क्या फर्क पड़ता है, बिल्ली काली है या सफेद? सवाल है कि वह चूहा पकड़ सकती है या नहीं? यानी साम्यवाद हो या बाजारवाद, असल सवाल है कि चीन आर्थिक ताकत है या नहीं? दूसरी बात कही, विकास ऐसे करो कि दुनिया को आहट न लगे। आवश्यकता अनुरूप बदलो, आगे बढ़ो, फिर अपनी शर्तों पर चलो, यह चीनी मानस बन गया। ब्रिटेन, अमेरिका को दुनिया की आर्थिक ताकत बनने में जो समय लगा, उससे कम समय में चीन उन्हें चुनौती देने लगा। ली ने चीनी मानस पर टिप्पणी की है ‘चीनी भाषा में चीन’ का अर्थ है, मध्य या केंद्र। यानी सत्ता का केंद्र। इतिहास में आसपास के देश, उसे नजराना चुकाते थे। चीन उसी मानस-मनोवृति से दुनिया पर अपना प्रभाव चाहता है। 1978 में चीन आर्थिक महाशक्ति बनने का संकल्प ले चुका था 1978 में चीन ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने का संकल्प ले चुका था। भारत के कदम किधर थे? नीतियों के स्तर पर, खुद अपने पैरों पर हम कुल्हाड़ी मारते रहे। आर्थिक नीतियों में कर्ज संस्कृति बढ़ी। 1990-91 आते-आते हम दिवालिया होने को थे। तीन सप्ताह का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। विदेशी कर्ज चुकाने के पैसे नहीं थे। कैबिनेट सेक्रेटरी नरेश चंद्रा और देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नायर, तुरंत बने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिले। कहा कि विदेशी ऋण चुकता नहीं हुआ तो दुनिया में भारत की साख और प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी। प्रधानमंत्री सोना गिरवी रखने में हिचक रहे थे। कहा, ‘इतिहास में मैं वह प्रधानमंत्री नहीं होना चाहता, जिसने देश का सोना बेचा।’ नरेश चंद्रा ने कहा, ‘सर, तब आप इतिहास में ऐसे बन जाएंगे, जिन्होंने देश में ‘बैंकरप्सी’ घोषित की।’ प्रधानमंत्री ने कहा ‘गो एहेड’। यह स्थिति रातोंरात बनी? बड़े अर्थशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि 80 के दशक से बाहरी कर्ज लेने की जो मात्रा बढ़ी, उसने भारत को दिवालिया होने के कगार पर पहुंचाया। पूर्व वित्त मंत्री आईजी पटेल ने कहा कि अल्पकालीन राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र सरकारों ने अपना दायित्व छोड़ दिया। रिजर्व बैंक के कई गवर्नरों, (मनमोहन सिंह जी 1982-85, आरएन मल्होत्रा 1985-90 समेत) ने बार-बार तत्कालीन प्रधानमंत्रियों को चेताया। 91 में दुनिया के आर्थिक समीक्षकों ने लिखा कि भारत ‘कठिनाई से अर्जित अपनी आर्थिक आजादी खोने के कगार’ पर था। 1988 तक भारत-चीन की जीडीपी बराबर थी 1988 तक भारत, चीन की जीडीपी बराबर थी। तीन दशक बाद अब चीन की जीडीपी लगभग 4.5 गुना अधिक है। चीन के आक्रामक रवैये के संदर्भ में ली का व्यावहारिक आकलन, भविष्यवाणी साबित हुई है। अब आर्थिक ताकत बनना विकल्पहीन है। हम गांधीवादी, भौतिक प्रगति सब कुछ नहीं मानते। पर भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए। तब गांधीवादी विकास मॉडल अपनाकर, दुनिया के लिए नई लीक बन सकते थे। पर 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना। अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा, आज विकल्प नहीं, देश के भविष्य से जुड़ा है। भारत की बात दुनिया ने कब सुनी? मौर्यों का ताकतवर साम्राज्य रहा। अशोक, पहले प्रतापी हुए, तब बौद्ध। फिर बुद्ध धर्म का संदेश चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत होते मंगोलिया तक पहुंचा। काफी पहले अमेरिका में रहे चीनी राजदूत ह्यू शिह ने कहा था, भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक कतरा भी नहीं बहाया। फिर भी चीन हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा। (ये लेखक के अपने विचार हैं) आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें The past tells that India did not learn from the crisis https://ift.tt/2WQySry Dainik Bhaskar भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए, 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना, अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है 

संकट से भारतीय मानस सबक लेता है? अतीत, कहता है नहीं। इतिहास में एकजुट ‘नियति से मुठभेड़’ और नई इबारत लिखने के चुनिंदा क्षण हैं। कारण है, ‘चलता है मानस’। अर्थशास्त्री कींस ने कहा था, ‘सवाल नए विचारों को विकसित करने का नहीं, पुराने मानस से मुक्ति का है।’ सिंगापुर बदलने वाले ली यूआन क्यू ने दशकों पहले भारत के बारे में दूरदर्शी बातें कही थीं।

पूर्व विदेश सचिव जगत मेहता का मानना था कि भारतीय जब अपनी संभावनाओं को नहीं जानते थे, तब ली ने भारत की इस ताकत को पहचाना। 1991 उदारीकरण के बाद नरसिम्हाराव जी ने ली को बुलाया। कुछ ही वर्षों बाद दुनिया के तीन विद्वानों ने ली से चर्चा की। इसपर पुस्तक (ली, क्यान यूः द ग्रैंड मास्टर्स इनसाइट्स ऑन चाइना, द यूनाइटेड स्टेट्स एंड द वर्ल्डः एस.आई.टी. प्रेस, अमेरिका) छपी। हर देशवासी को इस पुस्तक में भारत से जुड़े ली के विचारों को जानना चाहिए। वे कहते हैं ‘भारत अपनी महानता को न पा सकने वाला मुल्क है। इसकी संभावनाएं बंजर हैं, आंशिक भी हासिल नहीं हुई है।’

1950 में लगा भारत कामयाब होकर दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा
कैंब्रिज में विद्यार्थी दिनों से ही पंडित जी का मशहूर भाषण ‘नियति से मुठभेड़’ ली की जुबान पर था। उनकी आत्मकथा में विस्तार से उल्लेख है कि सिंगापुर को गढ़ने के क्रम में सबसे पहले मैं भारत गया। 1950 के दशक में। सीखने। तब मुझे लगा कि भारत संपन्न व कामयाब होकर, दुनिया की बड़ी ताकत बनेगा। पर भारत से ली का मन टूट गया। देंग (चीन) ने ली से कहा कि चीन को आधुनिकीकरण के लिए 22 वर्ष चाहिए।

उन्हें यह सच पता था कि क्रांति से चीनी समाज नहीं बदला है। देंग उस उम्र में अपना मानस बदल चुके थे। उन्होंने दो मुहावरे दिए। कहा, क्या फर्क पड़ता है, बिल्ली काली है या सफेद? सवाल है कि वह चूहा पकड़ सकती है या नहीं? यानी साम्यवाद हो या बाजारवाद, असल सवाल है कि चीन आर्थिक ताकत है या नहीं? दूसरी बात कही, विकास ऐसे करो कि दुनिया को आहट न लगे।

आवश्यकता अनुरूप बदलो, आगे बढ़ो, फिर अपनी शर्तों पर चलो, यह चीनी मानस बन गया। ब्रिटेन, अमेरिका को दुनिया की आर्थिक ताकत बनने में जो समय लगा, उससे कम समय में चीन उन्हें चुनौती देने लगा। ली ने चीनी मानस पर टिप्पणी की है ‘चीनी भाषा में चीन’ का अर्थ है, मध्य या केंद्र। यानी सत्ता का केंद्र। इतिहास में आसपास के देश, उसे नजराना चुकाते थे। चीन उसी मानस-मनोवृति से दुनिया पर अपना प्रभाव चाहता है।

1978 में चीन आर्थिक महाशक्ति बनने का संकल्प ले चुका था

1978 में चीन ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने का संकल्प ले चुका था। भारत के कदम किधर थे? नीतियों के स्तर पर, खुद अपने पैरों पर हम कुल्हाड़ी मारते रहे। आर्थिक नीतियों में कर्ज संस्कृति बढ़ी। 1990-91 आते-आते हम दिवालिया होने को थे। तीन सप्ताह का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। विदेशी कर्ज चुकाने के पैसे नहीं थे। कैबिनेट सेक्रेटरी नरेश चंद्रा और देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नायर, तुरंत बने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिले। कहा कि विदेशी ऋण चुकता नहीं हुआ तो दुनिया में भारत की साख और प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी।

प्रधानमंत्री सोना गिरवी रखने में हिचक रहे थे। कहा, ‘इतिहास में मैं वह प्रधानमंत्री नहीं होना चाहता, जिसने देश का सोना बेचा।’ नरेश चंद्रा ने कहा, ‘सर, तब आप इतिहास में ऐसे बन जाएंगे, जिन्होंने देश में ‘बैंकरप्सी’ घोषित की।’ प्रधानमंत्री ने कहा ‘गो एहेड’।

यह स्थिति रातोंरात बनी? बड़े अर्थशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि 80 के दशक से बाहरी कर्ज लेने की जो मात्रा बढ़ी, उसने भारत को दिवालिया होने के कगार पर पहुंचाया। पूर्व वित्त मंत्री आईजी पटेल ने कहा कि अल्पकालीन राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र सरकारों ने अपना दायित्व छोड़ दिया। रिजर्व बैंक के कई गवर्नरों, (मनमोहन सिंह जी 1982-85, आरएन मल्होत्रा 1985-90 समेत) ने बार-बार तत्कालीन प्रधानमंत्रियों को चेताया। 91 में दुनिया के आर्थिक समीक्षकों ने लिखा कि भारत ‘कठिनाई से अर्जित अपनी आर्थिक आजादी खोने के कगार’ पर था।

1988 तक भारत-चीन की जीडीपी बराबर थी
1988 तक भारत, चीन की जीडीपी बराबर थी। तीन दशक बाद अब चीन की जीडीपी लगभग 4.5 गुना अधिक है। चीन के आक्रामक रवैये के संदर्भ में ली का व्यावहारिक आकलन, भविष्यवाणी साबित हुई है। अब आर्थिक ताकत बनना विकल्पहीन है। हम गांधीवादी, भौतिक प्रगति सब कुछ नहीं मानते। पर भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए। तब गांधीवादी विकास मॉडल अपनाकर, दुनिया के लिए नई लीक बन सकते थे। पर 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना। अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा, आज विकल्प नहीं, देश के भविष्य से जुड़ा है।

भारत की बात दुनिया ने कब सुनी? मौर्यों का ताकतवर साम्राज्य रहा। अशोक, पहले प्रतापी हुए, तब बौद्ध। फिर बुद्ध धर्म का संदेश चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत होते मंगोलिया तक पहुंचा। काफी पहले अमेरिका में रहे चीनी राजदूत ह्यू शिह ने कहा था, भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक कतरा भी नहीं बहाया। फिर भी चीन हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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The past tells that India did not learn from the crisis

https://ift.tt/2WQySry Dainik Bhaskar भारत ने तीन मौके 1948, 1977 और 1991 खोए, 1991 में हमने ग्लोबलाइजेशन का रास्ता चुना, अब इसी रास्ते ‘आर्थिक महाशक्ति बनना’ ही विकल्प है Reviewed by Manish Pethev on July 24, 2020 Rating: 5

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