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कृषि कानूनों का मसला इतना लंबा खिंच गया कि इतने समय में तो किसानों की एक फसल कटकर मंडियों में आ जाती। जून में कृषि सुधार के लिए अध्यादेश लाए गए थे। कानून बनने से लेकर अब तक इस पर विवाद की ऐसी फसल खड़ी हो गई है कि बात अब ‘बॉर्डर’ पर प्रतिष्ठा की लड़ाई के तौर पर देखी जाने लगी है। दोनों ओर से नरमी तो पूरी दिख रही है, लेकिन दोनों पक्ष पास होकर भी दूर-दूर हैं। बात सिरे तभी चढ़ेगी, जब दिल मिलेंगे। किसानों की भलाई के लिए पीछे हटना कोई दुश्मन को पीठ दिखाना नहीं है। चाहे सरकार का नेतृत्व करने वाले हों या किसानों का, दोनों के लिए ही यह परीक्षा की घड़ी है। ऐसे आंदोलन नजीर बन जाते हैं और बरसों-बरस उनकी समीक्षा होती रहती है। जो आंदोलन सिर्फ हार-जीत की दृष्टि से चलाए गए या देखे गए उनको हमेशा विवादित ही माना गया। इस आंदोलन में भले किसान जिद पर अड़ा है, परंतु उसने दिल भी जीते हैं। बॉर्डर की जब भी बात आती है तो दुश्मन जैसे ख्याल आते हैं। सिंघु और टिकरी हमारे आंतरिक बॉर्डर हैं। ऐसे बॉर्डर जिनकी सीमाएं मिलती रहना बेहद जरूरी हैं, तभी तो हम बाहरी बॉर्डर पर मजबूती से खड़े रहेंगे। इस मजबूती में अन्नदाता का बहुत बड़ा योगदान है। जब देश के सामने पेट भरने के लिए अन्न का संकट था, तब सत्ता के आह्वान पर देशवासियों ने एक दिन का उपवास किया था। तब से लेकर आज तक किसान ने इस देश में अन्न की कमी नहीं होने दी। आज किसान दिवस है। सरकार हो या संगठन सभी को सिर्फ किसान बनकर सोचना चाहिए कि सिर्फ बातचीत को लंबा खींचकर ऐसे आंदोलन को थकाऊ नहीं बनाया जा सकता। जिस तरह किसान फसल के लिए पहले जमीन तैयार करता है, फिर खाद-बीज देता है और तमाम प्राकृतिक आपदाओं से बचाकर फसल तैयार करता है, उसी तरह सरकार ने इन सुधारों के लिए जमीन तैयार की होती तो अब तक फसल पककर तैयार हो जाती। कहीं न कहीं सरकार से यह चूक तो हुई ही है कि जिनकी भलाई वह करने जा रही है, उनके मन की बात सही समय पर नहीं सुनी गई। आज अच्छा मुहूर्त है। ऐसे शख्स का जन्मदिवस है, जो किसान से प्रधानमंत्री बने और प्रधानमंत्री बनकर भी किसान ही रहे। किसान भी भली-भांति यह जानते हैं कि चौधरी चरणसिंह की जयंती को किसान दिवस भाजपाई प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ही घोषित किया था। इसलिए अविश्वास का यह कुहासा अब छंटना चाहिए। फिर सुलह के बाद भी यदि कोई सरकार मुकरती है तो न तो काेई सरकार स्थायी है और न ही यह आंदोलन आखिरी। व्यवस्था का न्यायप्रिय होना जरूरी है और न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। सरकार को चाहिए कि किसानों के विश्वास में कोई कमी नहीं आने दे। एक दिन का किसान बनकर पहले भाईचारे की जमीन को मजबूत करे, फिर सौहार्द के बीज बोए, भरोसे के पानी से सिंचाई करे और आपदा में उसके विश्वास की भरपाई करे। उसके बाद जनकल्याण की जो खेती होगी, उससे केवल देश का पेट ही नहीं भरेगा, किसानों का पेटा (संतुष्टि) भी भरेगा और देश का खजाना भी। चलो आज एक बार...किसान बन जाएं! आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें बलदेव कृष्ण शर्मा, स्टेट एडिटर, दैनिक भास्कर पंजाब और हरियाणा https://ift.tt/3aNQSL9 Dainik Bhaskar सरकार और किसान पास होकर भी दूर-दूर हैं, बात सिरे तभी चढ़ेगी, जब दिल मिलेंगे

कृषि कानूनों का मसला इतना लंबा खिंच गया कि इतने समय में तो किसानों की एक फसल कटकर मंडियों में आ जाती। जून में कृषि सुधार के लिए अध्यादेश लाए गए थे। कानून बनने से लेकर अब तक इस पर विवाद की ऐसी फसल खड़ी हो गई है कि बात अब ‘बॉर्डर’ पर प्रतिष्ठा की लड़ाई के तौर पर देखी जाने लगी है। दोनों ओर से नरमी तो पूरी दिख रही है, लेकिन दोनों पक्ष पास होकर भी दूर-दूर हैं। बात सिरे तभी चढ़ेगी, जब दिल मिलेंगे।

किसानों की भलाई के लिए पीछे हटना कोई दुश्मन को पीठ दिखाना नहीं है। चाहे सरकार का नेतृत्व करने वाले हों या किसानों का, दोनों के लिए ही यह परीक्षा की घड़ी है। ऐसे आंदोलन नजीर बन जाते हैं और बरसों-बरस उनकी समीक्षा होती रहती है। जो आंदोलन सिर्फ हार-जीत की दृष्टि से चलाए गए या देखे गए उनको हमेशा विवादित ही माना गया। इस आंदोलन में भले किसान जिद पर अड़ा है, परंतु उसने दिल भी जीते हैं। बॉर्डर की जब भी बात आती है तो दुश्मन जैसे ख्याल आते हैं। सिंघु और टिकरी हमारे आंतरिक बॉर्डर हैं।

ऐसे बॉर्डर जिनकी सीमाएं मिलती रहना बेहद जरूरी हैं, तभी तो हम बाहरी बॉर्डर पर मजबूती से खड़े रहेंगे। इस मजबूती में अन्नदाता का बहुत बड़ा योगदान है। जब देश के सामने पेट भरने के लिए अन्न का संकट था, तब सत्ता के आह्वान पर देशवासियों ने एक दिन का उपवास किया था। तब से लेकर आज तक किसान ने इस देश में अन्न की कमी नहीं होने दी।

आज किसान दिवस है। सरकार हो या संगठन सभी को सिर्फ किसान बनकर सोचना चाहिए कि सिर्फ बातचीत को लंबा खींचकर ऐसे आंदोलन को थकाऊ नहीं बनाया जा सकता। जिस तरह किसान फसल के लिए पहले जमीन तैयार करता है, फिर खाद-बीज देता है और तमाम प्राकृतिक आपदाओं से बचाकर फसल तैयार करता है, उसी तरह सरकार ने इन सुधारों के लिए जमीन तैयार की होती तो अब तक फसल पककर तैयार हो जाती। कहीं न कहीं सरकार से यह चूक तो हुई ही है कि जिनकी भलाई वह करने जा रही है, उनके मन की बात सही समय पर नहीं सुनी गई। आज अच्छा मुहूर्त है।

ऐसे शख्स का जन्मदिवस है, जो किसान से प्रधानमंत्री बने और प्रधानमंत्री बनकर भी किसान ही रहे। किसान भी भली-भांति यह जानते हैं कि चौधरी चरणसिंह की जयंती को किसान दिवस भाजपाई प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ही घोषित किया था। इसलिए अविश्वास का यह कुहासा अब छंटना चाहिए। फिर सुलह के बाद भी यदि कोई सरकार मुकरती है तो न तो काेई सरकार स्थायी है और न ही यह आंदोलन आखिरी। व्यवस्था का न्यायप्रिय होना जरूरी है और न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।

सरकार को चाहिए कि किसानों के विश्वास में कोई कमी नहीं आने दे। एक दिन का किसान बनकर पहले भाईचारे की जमीन को मजबूत करे, फिर सौहार्द के बीज बोए, भरोसे के पानी से सिंचाई करे और आपदा में उसके विश्वास की भरपाई करे। उसके बाद जनकल्याण की जो खेती होगी, उससे केवल देश का पेट ही नहीं भरेगा, किसानों का पेटा (संतुष्टि) भी भरेगा और देश का खजाना भी। चलो आज एक बार...किसान बन जाएं!



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कृषि कानूनों का मसला इतना लंबा खिंच गया कि इतने समय में तो किसानों की एक फसल कटकर मंडियों में आ जाती। जून में कृषि सुधार के लिए अध्यादेश लाए गए थे। कानून बनने से लेकर अब तक इस पर विवाद की ऐसी फसल खड़ी हो गई है कि बात अब ‘बॉर्डर’ पर प्रतिष्ठा की लड़ाई के तौर पर देखी जाने लगी है। दोनों ओर से नरमी तो पूरी दिख रही है, लेकिन दोनों पक्ष पास होकर भी दूर-दूर हैं। बात सिरे तभी चढ़ेगी, जब दिल मिलेंगे।

किसानों की भलाई के लिए पीछे हटना कोई दुश्मन को पीठ दिखाना नहीं है। चाहे सरकार का नेतृत्व करने वाले हों या किसानों का, दोनों के लिए ही यह परीक्षा की घड़ी है। ऐसे आंदोलन नजीर बन जाते हैं और बरसों-बरस उनकी समीक्षा होती रहती है। जो आंदोलन सिर्फ हार-जीत की दृष्टि से चलाए गए या देखे गए उनको हमेशा विवादित ही माना गया। इस आंदोलन में भले किसान जिद पर अड़ा है, परंतु उसने दिल भी जीते हैं। बॉर्डर की जब भी बात आती है तो दुश्मन जैसे ख्याल आते हैं। सिंघु और टिकरी हमारे आंतरिक बॉर्डर हैं।

ऐसे बॉर्डर जिनकी सीमाएं मिलती रहना बेहद जरूरी हैं, तभी तो हम बाहरी बॉर्डर पर मजबूती से खड़े रहेंगे। इस मजबूती में अन्नदाता का बहुत बड़ा योगदान है। जब देश के सामने पेट भरने के लिए अन्न का संकट था, तब सत्ता के आह्वान पर देशवासियों ने एक दिन का उपवास किया था। तब से लेकर आज तक किसान ने इस देश में अन्न की कमी नहीं होने दी।

आज किसान दिवस है। सरकार हो या संगठन सभी को सिर्फ किसान बनकर सोचना चाहिए कि सिर्फ बातचीत को लंबा खींचकर ऐसे आंदोलन को थकाऊ नहीं बनाया जा सकता। जिस तरह किसान फसल के लिए पहले जमीन तैयार करता है, फिर खाद-बीज देता है और तमाम प्राकृतिक आपदाओं से बचाकर फसल तैयार करता है, उसी तरह सरकार ने इन सुधारों के लिए जमीन तैयार की होती तो अब तक फसल पककर तैयार हो जाती। कहीं न कहीं सरकार से यह चूक तो हुई ही है कि जिनकी भलाई वह करने जा रही है, उनके मन की बात सही समय पर नहीं सुनी गई। आज अच्छा मुहूर्त है।

ऐसे शख्स का जन्मदिवस है, जो किसान से प्रधानमंत्री बने और प्रधानमंत्री बनकर भी किसान ही रहे। किसान भी भली-भांति यह जानते हैं कि चौधरी चरणसिंह की जयंती को किसान दिवस भाजपाई प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ही घोषित किया था। इसलिए अविश्वास का यह कुहासा अब छंटना चाहिए। फिर सुलह के बाद भी यदि कोई सरकार मुकरती है तो न तो काेई सरकार स्थायी है और न ही यह आंदोलन आखिरी। व्यवस्था का न्यायप्रिय होना जरूरी है और न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।

सरकार को चाहिए कि किसानों के विश्वास में कोई कमी नहीं आने दे। एक दिन का किसान बनकर पहले भाईचारे की जमीन को मजबूत करे, फिर सौहार्द के बीज बोए, भरोसे के पानी से सिंचाई करे और आपदा में उसके विश्वास की भरपाई करे। उसके बाद जनकल्याण की जो खेती होगी, उससे केवल देश का पेट ही नहीं भरेगा, किसानों का पेटा (संतुष्टि) भी भरेगा और देश का खजाना भी। चलो आज एक बार...किसान बन जाएं!

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बलदेव कृष्ण शर्मा, स्टेट एडिटर, दैनिक भास्कर पंजाब और हरियाणा

https://ift.tt/3aNQSL9 Dainik Bhaskar सरकार और किसान पास होकर भी दूर-दूर हैं, बात सिरे तभी चढ़ेगी, जब दिल मिलेंगे Reviewed by Manish Pethev on December 23, 2020 Rating: 5

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